Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 286
________________ २५२ इति-भासियाई की कोशिश करें तभी हमारी महत्वाकांक्षाएं यथार्थ की धरती पर उतर सकेंगी। अन्यथा ऐसी महत्वाकांक्षाएं केवल मनोहर स्वम बनकर रह जाती हैं । एक विचारक ने कहा है:-Ambition is so powerful a. passion in the human breast that however high we aro lever satisfied."महत्वाकांक्षा मान शक्तिशाली अभिलाषा है कि हम कितने ही ऊंचे पद पर पहुंचे संतुष्ट नहीं होते।" मेक्यिविली. भगवान महावीर ने साधक को प्रेरणा दी-हर साधना प्रारंभ करने के पूर्व तू अपनी शक्ति को तोलना । अपनी स्थिति का स्पष्ट अवलोकन करने के बाद ही आगे कदम रखना, ताकि तुझे आधे मार्ग से वापिस न लौटना पैडे 1 जाणेज्जा सरणं धीरो ण कोडि देति दुग्गतो। ण सीरिय छेटी की मोजाओ ।। ९ ।। अर्थ:-धीर, पुरुष जो शरण दे सकता है १६ (अजेय) किले से युक्त कोरि-पर्वत शिखर भी शरण नहीं दे सकता । दृप्त सिंह कुशल हाथी को मार नहीं सकता और जम्बूक शूगाल उसे खा नहीं सकता। गुजराती भाषांतर :* ઘેર્યશાલી માણસ જેટલું રક્ષણ આપી શકે છે, તેટલું રક્ષણ જીતી ન શકાય એવા કિલાથી યુક્ત કરોડો પહાડોના શિખર પણ રક્ષણ આપી શકતા નથી. મદોન્મત્ત સિંહ ચાલાક હાથીને મારી શકતો નથી અને શિયાળ તેને ખાઈ શકતો નથી, प्रस्तुत गाथा में अईतर्षि बता रहे हैं साधक धीर पुरुष का ही शरण ग्रहण करे। धैर्यशील महापुरुष ही दूसरे को शरण दे सकते हैं। यदि सर्प पीछा कर रहा है तो शक्तिशाली गरुड ही बचा राकता है, किन्तु मेंढक की शरण में गये तो वह क्या शरण दे सकेगा ? महापुरुष का जीवन विशाल वृक्ष का जीवन है जो दुःख की धूप को अपने ऊपर सेलते हैं, किन्तु अपने शरण में आये हुए को शीतल छाया ही प्रदान करते हैं। भगवान् महावीर को शरण लेकर ही चमरेन्द्र प्रथम स्वर्ग लोक तक पहुंच सका और उसने शकेन्द्र को युद्ध के लिये ललकारा और जय शकेन्द्र बज ज्वालाएं छोडता हुआ उसके प्राण लेने आया तो भगवान महावीर की शरण ही उसे बचा सकी। यह घटना उस समय हुई जब कि भगवान महाबीर सुसुमार बगर में दीक्षा सेने के बाद ग्यारहवें वर्ष में तप कर रहे थे। महापुरुष की शरण जिस ढंग से रक्षा कर सकती है वैसी रक्षा विशाल पर्वत के उच्च शिखर पर स्थित कोट भी नहीं कर सकता। प्रस्तुत गाथा की द्वितीय पंक्ति में दर्पित सिंह कुशल हाथी और जम्बूक का वर्णन आता है, किन्तु उसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो सका । दर्पित सिंह कुशल हस्ति को मार नहीं सकता। पर जम्बुक क्या करता है वह हाथी को नहीं खाता तो वह खा भी कैसे सकता है ? इसके पीछे कोई कहानी होनी चाहिए जोकि उस युग में प्रसिद्ध होगी। अर्थात धीर को शरण भूत समझना चाहिये। अजेय दुर्ग से मुक्त गिरिशिखर शरण मी नहीं दे सकता । दृप्त सिंह अथवा कुशल हस्ति को शुगाल कुपित न करे। यहा "भोज्य पाठ निरर्धक है, क्योंकि शुगाल सिंह को कभी या नहीं सकता। वेसपच्छाणसंबद्ध संबद्धं पारए सदा । णाणा-अरतिपायोग्गं णाले धारेति बुद्धिमं ॥ २१ । अर्थ:-वेश प्रच्छादन-वस्त्रादि से सम्बद्ध युक्त मुनि, मुनि भाव से निरूद्ध पियाओं को रोकता हुआ मिथ्यात्वादि क्रियाओं से असम्बद्ध रहे। बुद्धिमान साधक के लिये अरति-प्रायोग्य वस्तुएं धारण करना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसे मुनि भाव के विरुद्ध क्रियाओं से भी बचना आवश्यक है। गुजराती भाषान्तर: વેષપ્રછાદન એટલે મુનિના વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત (યુક્ત) મુનિ, મુનિસહજ આચાર-વિચારોથી વિરુદ્ધ ક્રિયાઓને રોકી મિથ્યાત્વ આદિ ક્રિયાઓથી છેટે (સંસરહિત) રહે. બુદ્ધિમાન સાધકને માટે આસક્તિ ને વિરોધ કરનારો બહિષ જ રાખી ચાલે એમ નથી, મુનિભાવથી વિરુદ્ધ જે ક્રિયા છે તેનાથી પણ બચવું સદંતર જરૂરી છે. १ बलं थामं च पहाए सद्धा मारुग्ग-मपणो । खेत कालं च विनाम तह पाणं निझुंजए-दशवै. अ. ह.-गा. ३२ २ देखो भगवतीसूत्र शतक ३,

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