Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 301
________________ एकचालीसवाँ अध्ययन " २६७ अर्थात् जैसे पानी रहित मत्स्य कंक घास में आजाती है यह श्लोका पहिले के श्लोक से सम्बन्ध रखता है । लेखक के दोष से उत्तरार्ध नष्ट हो गया है। वर्तमान के रस में गृद्ध बने हुए प्राणी मोह रूप मल से उद्वेलित होते हैं और पानी में रहे हुए हस्ति की भांति या अर्थात् बलवती उत्कंठा को प्राप्त करते हैं । चतुर्थ गाथा का उत्तरार्थ, पंचम गाथा का पूर्वार्ध है। यह माथा अविकल रूप में पन्द्रहवें अध्ययन के बारहवें क्रम में स्थित है। दित्तं पावंति उक्कंठं वारिमझे व वारणा । आहारमेत्तसंबद्धा कजाकजणिमिलिता ॥५॥ अर्थ जैसे पानी में रहा हुआ हस्ति उत्कृष्ट दृष्टि को अथवा दैन्य को प्राप्त करता है वैसे ही आहार मात्र से सम्बन्ध रखनेवाला कार्याकार्य से आंखें मूंद लेता है। गुजराती भाषांतर: જેમ પાણીમાં રહેલો હાથી મદમસ્ત બને છે અને ત્યાં જ અવિવેકથી આસક્ત બની પોતાની સ્વતંત્રતા ગુમાવી બેસે છે, તેમ એક વિષયમાં આસક્ત બનેલો માણસ પોતાની વિવેકશક્તિને ગુમાવી પરતંત્ર બની જાય છે. वर्तमान भोगों की आसक्ति में फंसा हुआ व्यक्ति सचमुच दयनीय है। वह अपनी स्वतंत्रता को खो बैठता है। हाथी पानी में रहता है तो बड़ा भारी मद को प्राप्त करता है। इसी प्रकार भोगों के बीच फंसा हआ अधिकाधिक दर्य का अनुभव करता है। केवल आहार पर ही उसकी दृष्टि होती है, किन्तु भोजन के साथ विवेक भी आवश्यक है, इस तथ्य से यह आस मूंद लेता है। देह के साथ भोजन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, किन्तु वह भी कार्याकार्य का विवेक चाहता हैं । हमारा भोजन शुभ के द्वार से आना चाहिए। दूसरी ओर भोजन हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। मानव रोटी दाल का यंत्र मात्र नहीं है, वह उससे ऊपर उठकर भी सोचता है। कुछ व्यक्ति भले भोजन के लिये जीते हों किन्तु विचारशीलों के लिये यह बात नहीं है। इंग्लिश विचारक कहता है:-Eat too live and don't live to eat. जीने के लिये खाओ खाने के लिये न जीओ। भोजन को तुम खाओ, किन्तु कहीं ऐसा न हो भोजन तुम्हें खाजाए। इसके मोह में पड़कर हबल खा गये और अगले दिन बिस्तर पकरने का समय आ गया, तो समझना होगा भोजन हमने नहीं खाया, भोजन हमें खा मया है। भोजन ही नहीं; कोई भी कार्य हो कार्याकार्य का विवेक हम न खोएं। प्रस्तुत गाथा की दूसरी यह भी व्याख्या हो सकती है कि हाथी एक बलवान् प्राणी है, किन्तु जलधारा में फंसकर बह दीन दुर्घल बन जाता है। क्योंकि वह तट को देखकर भी वहां तक पहुंच नहीं सकता। ऐसे ही भोगासक प्राणी आत्म-शान्ति के पथ को देखकर भी वहां तक पहुंचने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। चक्रवती सम्राट ब्रह्मदत महामुनि चित्त के अध्यात्म संदेश के उत्तर में यही तो कहता है कीच में फंसा गजराज तर को देखकर भी वह तक जाने में असमर्थ रहता है। ऐसे ही में भी अध्यात्म पथ को देखकर वहां तक पहुंचने में असमर्थ है। ऐसा लगता है यह चक्रवर्ती की नहीं कोई क्षयग्रस्त दुर्बल व्यक्ति की भाषा हो । यही मानव के पौरुष की पराजय है। पक्विणो घतकुंभे या अवसा पायंति संखयं । मधु पात्रेति दुर्बुद्धी पवातं से ण पस्सति ॥ ६ ॥ अर्थ-बी के घड़े में पड़ी हुई मक्षिका विवश हो मृत्यु को प्राप्त करती है। इसी प्रकार शहद के लिये वृक्षाप्रपर स्थित दुर्बुद्धि प्राणी सोचता है, मैं मधु प्राप्त करूंगा किन्तु वह यह नहीं देखता कि मैं गिर जाउंगा। गुजराती भाषांतर: - જેમ ઘીના ઘડામાં પડેલી માખી પરાધીન થઈ મરણ પામે છે તેવી જ રીતે મધ મેળવા માટે ઝાડના ચપર ચઢી બેઠેલ મુરખ પ્રાણું વિચાર કરે છે કે મને મધ મળશે, પણ એ વિચાર નથી કરતો કે હું નીચે પડી મરી જઈશ. १ नागो जहा पंकजलायसन्नो ददर थानाभिसमेह तीरे । एक वर्ष कामगुणेस गिद्धा न मिखुणो मगमगुल्वयागो ।। -उत्तरा० ज० १३ गा०३०

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