Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 282
________________ २४८ इसि-भासिया तीर्थकर देवों की देशना सामान्य रूप मेंगीति प्रधान है किन्तु विशेष में मर्मस्पशौं है। किन्तु उसकी मर्मस्पर्शिता श्रोता की पात्रता और उसकी क्षेत्र विशुद्धि पर आधार रखती है। टीका:-- नानावस्योदयान्तरे पुरुषाणां निनावस्था अनुसृत्य सर्वहस्सीकरैर्भाषिता पाण्युपदेवाः सामान्यन गीतनिर्माणोपविष्टारमपरिणामा भवति, विशेषे तु मर्म-वेधिनी प्रत्येकपुरुषस्त्र छिभित् । गताः। सव्व-सत्त-क्ष्यो बेसो, णारंभो णपरिम्गही। सतं तवं दयं वेव भासंति जिणसतमा ॥१२॥ अर्थ:-जिनेश्वर देव समस्त प्राणियों पर दया. चेश-मुनि कालप और अनारंभ अपरिग्रह सल सद्भाव, तप और दया का उपदेश करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જિનેશ્વરદેવ બધા જીવો ઉપર દયા, વેષ (મુનિનું ૫) અને અનારંભ, અપરિગ્રહ સત્વ સદ્દભાવ, તપ, અને દયાનો ઉપદેશ કરે છે. पूर्व गाथा में बताया गया है कि तीर्थकर देव की देशना सामान्य रूप में गीत रूप है और विशेष में मर्मबोधिनी है। वह मर्मघोषित यहाँ स्पष्ट की गई है। उस शुद्ध आत्मा से प्रस्फुटित वाणी में सबके प्रति दया की पवित्र भावधारा यह रही है । सबका हित और सबका विकास चाहनेवाली वाणी वीतराग की वाणी है। सर्वोदय की यह पवित्र देशना हजारों युग पहले जिनेश्वर के मुख से प्रवाहित हुई थी। आचार्य संमतभद्र भी कहते हैं-ओ वीतराग! आपका शासन ही सर्वोश्य की प्रेरणाभूमि है । राजतंत्र में प्रजा की उपेक्षा हे प्रजातंत्र मत पक्षित है, किन्तु जिनेश्वर के शासन में एकेन्द्रिय तक के आविकसित जीवों के हित मुरक्षित है। उस सुरक्षा का दायित्व दिखाता हुआ मुनिवेष उन्होंने निर्धारित किया है। साथ ही सर्वोदय की प्रतिज्ञा लिये चलनेवाले साधक को आरंभ और परिग्रह से भी दूर रहना होगा । क्यों कि आरंभ अल्प विकसित जीवों को कुचलता है। महारंभ गरीबों की रोटी रोजी छीनता है । परिग्रह शोषण करता है, अतः वीतराग के सर्वोदय शासन में इनको स्थान नहीं है । वीतराग देव तप और दया के द्वारा आत्मिक शक्ति को जागृत करने की प्रेरणा देते हैं। उनकी वाणी में सत्य दया और तप की त्रिपथमा ( गंगा) बहती है। खतत्व का अवबोध उसका ध्येय है। तप आदि उस स्वरूप स्थिति तक पहुंचने के सोपान है। टीका:-- सर्वसत्वदयो वेषो लिंगलक्षितं मुनित्वं भवस्यनारंभो परिग्रहश्च सर्व सद्भाचं तपो दानं चैव जिनसत्तमा भाषते । गताः । देतिदियस्स धीरस्स कि रपणेणास्समेण वा । जत्थ जत्थेय मोडेजातं रगणं सो य अस्समो॥ १३ ॥ अर्थः-दसितेन्द्रिय वीर के लिये अरण्य और आश्रम से क्या प्रयोजन है। जहां जहां मोह का अन्त है वहीं अरण्य है और यही आश्रम है। गुजराती भाषान्तर: જેના ઇંદ્રિયો પર સંચમ છે તેવા વીરને માટે અરણ્ય અને આશ્રમનું શું કામ છે? જ્યાં જ્યાં મેહનો અંત છે, ત્યાં જ અરય છે અને ત્યાં જ આશ્રમ છે. यह कोई जरूरी नहीं है कि आत्मा साधना के लिये वन में ही जाना चाहिये । यदि वन में पहुंचकर भी वृत्तियों पर विजय करते नहीं आया तो वन में भी वासना उभर सकती है । वासना का पिपासु वन में भी भात्मशान्ति नहीं पा सकता। जमकि इन्द्रियजेता साधक महलों में रहकर मी केवलज्ञान पा सकता है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि केवलज्ञान पाने के लिये महलों में रहना अवश्यक है। जैनदर्शन स्थान को नहीं स्थिति को महत्व देता है उसका यह भी आग्रह नहीं है कि आप वन में ही रहें। वहां रहेंगे तभी कैवल्य पा सकेंगे। वह यह भी नहीं कहता कि आप महलों में वासना की लहरों में छूम रहें। वह तो चाहता है आप अपने में रहें। अपने निज घर में पहुंचे । आत्मा पर घर में भटक रहा है, इसी लिये तो विडम्बना है। ऋवि बनारसी दासजी भी कहते हैं: १ सर्योदयमिदं शासन सवैष।-भाचार्य समन्समद,

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