Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 283
________________ २४ अडतीसवाँ अध्ययन हम तो कबहुं न निज घर आये। पर घर फिरस बहुत दिन बीते नाम भनेक धराये। पर पद निज पद मानी मगन हैं। पर परिणति लिपटाये। मोह दशा ही आत्मा की स्वस्थिति में पहुंचने के सबसे बड़ी बाधक शक्ति है । जहां मोह का अन्त है वहीं मोक्ष है, फिर मोक्ष के लिये एक इंच भी इधर उधर हटने की आवश्यकता नहीं है । क्यों कि जितना बहा मानव-क्षेत्र है उतना ही विशाल सिक्षेम है । अतः स्थान नहीं, किन्तु वृत्तियों को बदलने की आवश्यकता है। किमुदंतस्स रपणेणं तस्स चा किमस्समे। णातिवंतस्स भेसज्जं ण चा सत्थस्स मेज्जता ॥ १४ ॥ अर्थ:-इन्द्रिय जेता के लिये जंगल क्या और दान्त (दमनशील) व्यक्ति के लिये आश्रम क्या? अर्थात् उसके लिये वन और आश्रम दोनों सम हैं। रोम से अतिक्रान्त-मुक्त व्यक्ति के लिये औषध की आवश्यकता नहीं है और शस्त्र के लिये अभेद्यता नहीं है, वह सबको भेद सकता है। अथवा मर्यादाहीन के लिये कोई औषध नहीं है। और स्वस्थ व्यक्ति को औषत्र की आवश्यकता नहीं है। गुजराती भाषान्तर: ઇદ્રિય ઉપર જય પામેલા વીરને માટે જંગલ શું અને દાન્ત (દમનશીલ) માસ માટે આશ્રમ શું? એટલે બંને માટે વન અને આશ્રમ એ બંને સરખાજ છે. માંદગી અતિક્રાંત મુક્ત પેલા માણસ માટે દવાની જરૂરી જ નથી અને શસ્ત્રને માટે અભેદ્યતા નથી; કેમ કે તે બધાંને ભેદી શકે છે. અથવા મદારહિત માનવને માટે કંઈજ ઈલાજ નથી, અને તેવા માણસને માટે દવાની જરૂરી પણ નથી, बन में जाने मात्र से इन्द्रियों पर काबू हो जायगा यह धारणा गलत है, क्योंकि जंगल का हिमालय में ऐसी जड़ीबुट्टी नहीं है जो मन पर विजय दिला सके । उद्विग्न चित्तवाले व्यक्ति के लिये वन का शान्त वातावरण भी शान्ति नहीं दे सका । मन में शान्तिधारा वह रही है, तो मनोहर बनस्थली उसमें पवित्रता का संचार कर सकती है। अन्यथा मन ही दूषित है, बनस्थली उसे रोक नहीं सकती । रावण वन से ही तो सीता को ले गया था । अतः वन में आत्मशान्ति मिल ही जायेगी ऐसा नहीं कहा जा सकता । अन्यथा वनविहारी सभी हिंस्र पशु भी सन्त होते। भगवान महावीर ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा था न मुंडिएष समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण तावसो। केवल मुंडित होने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता और ॐकार के जाप से कोई प्राह्मण नही हो जाता । जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं कहला सकता। वल्कल वस्त्र धारण करने मात्र से कोई तापस नहीं हो जाता। अतः कपरे नहीं; मन बदलने की आवश्यकता है.। स्थान नहीं स्थिति बदलिये। टीका:-किम दान्तस्यारण्येनाश्रमेण वा? न किंचिदित्यर्थः । यथातिकान्तस्य रोगाविमुक्तस्य पुरुषस्य भैषज्य नास्ति । न च शस्त्रस्याभेवता, तन्ति स्वभावादभेद्यमेव । गतार्थः । . 'सुभाव-भावितप्पाणो सुपणं रपणे धणे पि वा। सब्वं एतं हि झाणाय सल्ल-चित्तेव सलिणो ॥१५॥ अर्थ:--स्वभाव से भाचित आत्मा के लिये शून्य बन और धन सभी एक समान है। वे सभी वस्तुएं उसके लिये उसी प्रकार धर्म ध्यान की निमित्त होती हैं जैसे कि सशल्यचित्त वाले के लिये आर्तध्यान की। -- - १ वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहं तपः । अकुत्सिने कर्मणि यः प्रवर्तते निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ।। ३२

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