Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 250
________________ इलि - भासियाई गुजराती भाषान्तर: હુમણાં હું કષાયો ( પર વિજય મેળવી તે )નો નાશ (ઘાતક પ્રવ્રુત્તિ) કરવા માટે ગુસ્સો કરતો નથી, માન કરતો નથી, છલથી દૂર રહું છું અને લોભ કરતો નથી. ત્રિગુણિયોથી ગુપ્ત ત્રિદંડ (મન, વાણી અને દેહ ) થી વિત, શય ( भाया निधान, सनी अभिलाषा, अपने मिथ्यादर्शन) रहित, अभिमान रहित, यार ( खीनी, हेरानी, रानी अने भोजननी) याशोथी रहित, पाय ( हर्या, भाषा, भेषशा, माहान, निक्षेय, उभ्या असणा) समितिमोथी युक्त, પાંચ ઇન્દ્રિયોથી સંવૃત, દેહધારણ માટે અને યોગના સંધાન માટે નવકોટિ પરિશુદ્ધ દોષોથી પરિમુક્ત, ઉદ્ગમ અને ઉત્પાદના દોષોથી શુદ્ધ, અહીંયા અગર ખીંચે કાણું ખીન્ન ફુલોથી બીજાઓને માટે મનાવેલા અગ્નિ અને કુંવા ડાથી રહિત, શસ્ત્રતીત અને શસ્ત્રપરિત, આહાર, શય્યા અને ઉપાધિને હું સ્વીકાર કરું છું અને આત્માને ભાવિત કરું છું એમ ઉદ્દાલક ઋષિ બોલ્યા. कषाय पर विजय पाने के लिये साधक को कषाय की परिणति से दूर रहना चाहिये । उसे क्षमा विनय सरलता और निर्दोभिता के भात्रों में रत रहना चाहिये। साथ ही उसकी आहार और व्यवहार शुद्धि भी आवश्यक है। समिति और मियाँ उसे साधना में लीन रखती है। मन, वाणो और काया की शुभ से हटकर शुभ को ओर प्रवृत्त करना गुमि है। त्रिदंड :-मन वाणी और काया की आत्म विघातिनी प्रवृत्ति है । निःशल्य : – माया निदान = फलासकि और मिथ्यादर्शन चे शल्य हैं, इनसे विश्त निःशल्य कहा जाता है। चडविकहा :- स्त्री कथा, देश-कथा, राज कथा, भात = भोजन कथा ये चारों विकथा व्यर्थ कथाएं हैं । = पंचसमिति :- ईय विवेकपूर्वक चलना, भाषा विवेकपूर्वक सीमित बोलना, एषणा शुद्ध भोजन की शोध, आदान निक्षेप निजी सीमित सामान को यत्न के साथ लेना और रखना. २१६ / उच्चार प्रस्त्रवणादि = परिस्थापन एकान्त स्थान में विवेकपूर्वक मल मूत्रादि विसर्जन करना । ये पांचों समितियां हैं। उपयुक्त प्रवृत्ति समिति हैं। गुप्ति निवृत्ति हैं तो समिति प्रवृत्ति है। साधक जीवन निवृत्ति और प्रवृत्ति के दो तटों के बीज बहता है, किन्तु दोनों में ही उसका विवेक जागृत रहना चाहिए। मूल और उत्तर गुणों से संयमित जीवनवाले साधक को भी भोजन की आवश्यकता होती है, किन्तु भोजन नवकोटि शुद्ध हो। एषणा गवेषण भोजन प्राप्ति के दोषों से रहित तथा उद्गम और उत्पादक के दोषों से मुक्त हो। जिस भोजन के निर्माण और उसके संस्थापन में मुनि का संकल्प हो वह सुनि के लिये अग्राहा है। उद्गम और उत्पादन के क्रमशः सोलह दोष हैं। विशुद्ध भोजन भी मुनि एक ही घर से ग्रहण न करें, किन्तु विविध कुलों में जाकर शुद्ध भोजन ले । की मिक्षा भ्रमरवृत्ति है । दशवेकालिय सूत्र के प्रथम अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि का सुंदर निरूपण किया गया है । जैले भ्रमर पक्ष के फूलों का रस ग्रहण करता है, किन्तु वह इतना कुशल है कि उस के रस प्रहण से न पुष्पों को पीदा होती हैं, न वह स्वयं ही अतृप्त रहता है। साधक की भिक्षा भी ठीक इसी प्रकार की हो। वह समाज उद्यान में पहुंचे गृहस्थ पुष्पों से रस ले किन्तु उसके द्वारा वे फूल सुसन भी नहीं चाहिये ।. भोजन दूसरों के लिये बनाया गया हो अग्नि और धूर्व से रहित हो। भोजन शस्त्र परिणत हो साथ ही शत्र से रहित भी हो । १ सम्यग्योग निग्रही तत्त्वार्थ अ" ९ सू० ८ २. जो भोजन मुनि ने बनाया न हो, न दूसरे से बनवाया हो और न उसके लिये अनुमोदन ही किया हो । जो काय मन वाणी और देह तीन्हों से पृथक् है वह नवकोटि शुद्ध कहलाता है, भन से न करना, न करवाना, न अनुमोदन करना ऐसे ही क्षणी और काया के द्वारा ये नव कोटियां है। ३ जहा दुम्गस्स धुके भगरी भा' वियर रसं । पुष्प फिलामे सोय पींगइ अध्ययं ।। एमए समणामुत्ता जे कोष संति साइगो । विश्गभाव पुण्फेसु क्षण भत्तेस रही ॥ अ १. गाथा २-३ xश से यहां चाकू आदि अभिप्रेत नहीं है किन्तु एक द्रव्य में विजातीय द्रव्य का मिश्रण; जिस माघात को द्रव्य जीव सह न सके जैसे शाक आदि में नमक मिश्रण हो वह द्रव्य शस्त्रपरिणत है । ५ उस द्रव्य के साथ नमक। दि शस्त्र पृथक रूप में उपस्थित न हो। अन्यथा वट सचित एवं अनेषणीय होगा ।

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