Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 256
________________ इसि भासिय आतडे जागरो होही परद्वाहिधारण । आतट्ठो हाच तस्स जो परट्ठाहिधारय ॥ १४ ॥ अर्थ :- आत्मार्थं लिये जागृत बनो, परार्थ को धारण न करो जो दूसरे के अर्थ ( कार्य ) को अपनाता है वह अपना अर्थ ( कार्य ) खो बैठता है । ર गुजराती भाषान्तर:-- આત્માર્થ પોતાના ( કલ્યાણ માટે હમેશા જાગ્રત રહો, બીજાની ફીકરમાં પડીને તમે પોતે નબળા મનો નહીં, જો તમે બીજાની ચિંતામ્ કાકર )માંજ હૂ રહેશો તો પરણામે તમારૂં હિત હું ક←ાણુ ) તમે ખોઈ બેસશો. साधक तुम अपने कल्याण के लिये जागृत बनो। दूसरों की चिन्ताओं से दुबले न बनो। यदि दूसरों की चिन्ताओं में बे रहोगे तो अपना हित खो बैठोगे । प्रस्तुत गाथा साधक को स्वहित के लिये जागृति का संदेश दे रही किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि साधक स्वार्थी बनकर अपने आप में विश्व के हित को भूल जाए। यदि वह केवल अपने हित को ही आगे करके चलता है तो वह अपने उत्तरदायित्व से अलग हटता है । किन्तु प्रस्तुत गाथा का हार्द कुछ दूसरी कहानी कह रहा है। यहां उन साधकों के लिये करारा व्यंग है जो दूसरों के उद्धार के लिये चल पडे हैं, पर जिनका अपना कोई ठिकाना नहीं है। दूसरों के उद्धार की फिक्र में आज का सावक साधना का तत्व खो बैठा है। उसकी शक्ति का मोह पर के सुधार की ओर है, आज का श्रमण वर्ग चला है गृहस्थों को सुधारने और श्रावक समुदाय चला है साधुओं को सुधारने, पर इस पर सुधार की उयेक चुन में घर उजश जा रहा है। दूसरे के कल्याण की चिन्ता में वह अपना खो बैठा है। यह जैनदर्शन का मूल बर रहा है कि हर आत्मा अपने पतन और विकास के लिये स्वयं उत्तरदायी है । अनंत तीर्थं को मिलकर भी अन्य आत्मा के एक कर्मप्रदेश को कम नहीं कर सकते । निश्चय की यह भाषा अपने आपमें बहुत बड़ा सत्य रखती है। व्यवहार की दृष्टि में दूसरे के विकास में आप निमित्त भले बन सकें, किन्तु उसके लिये भी पहले अपने आपको विशुद्ध बनावें फिर दूसरे की आत्मा का फैसला करने वलें । टीका :- भारमा जागृहि मा भूः परार्थाभिधारकः तादृश्यात्मार्थी हीयते । गतार्थः । जह परो डिसेवेज पावियं पडि सेवणं । तुज्झ मोणं करेंतस्स के अट्ठे परिहायति ? ॥ १५ ॥ अर्थ :- यदि दूसरा कोई पाप की प्रतिसेवना कर रहा है तो तुझे मौन करने में क्या हानि होती है ? । गुजराती भाषान्तरः - એ કોઈ બીજો માળુણ્ય પાપનું આચરણ કે પ્રતિસેવના કરતો હોય તો તને ચુપચાપ રહેવામાં શું વાંધો છે? / अतर्षि आलोचकों को बहुत बड़ी फटकार बता रहे हैं। माना दूसरा व्यक्ति गलत कदम उठा रहा है वह पाप या अनाचार की ओर बढ़ रहा है और आपकी आंखों ने देख भी लिया है। फिर भी आप मौन रह जाइये। क्योंकि सारी दुनिया को सुधारने का ठेका आपने नहीं लिया है। फिर उसके पुण्य पाप की जिम्मेदारी आप पर नहीं है। जैनदर्शन बोलता है प्रत्येक आत्मा स्वकृत कर्म को ही भोगता है परकत नहीं । फिर आप दूसरे के जीवन की आलोचना करके कौनसा पुण्य कर्म कर रहे हैं ? । यदि दूसरे की आलोचना पुण्य कर्म होता तो आगम पिट्टीमंसं न खाएञ्जा का पाठ न होता नहीं तो स्पष्ट शब्दों में पर निन्दा का निषेध किया गया है। इतना ही नहीं पर निन्दा को नीचे गोत्र का बन्ध हेतु बताया है। परात्मनि प्रशंसे सदसद्गुणाच्छादने नोद्भावते च नीचे गात्रस्य । तत्वार्थ अ० ६ सू० २४. दूसरों की निन्दा और आत्म-प्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों को ढकना और तुर्गुणों को प्रकट करना नीच गोत्र का बन्धहेतु है । आज मानव दूसरों को खुला करता है अपने दोषों पर पर्दा डालता | आगम कहता है अपने दोषों की आलोचना करो और गुणों पर पर्दा डालो, किन्तु आज उल्टी गंगा बह रही है; वह दान का शिलालेख लगाता है और दोषों पर शिला चड़ता। उसके शिलालेख भी अधिकांशतः अपने पापों को शिला के नीचे दबाने के लिये ही होते हैं ।

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