Book Title: Indriya Parajay Shatak Author(s): Buddhulal Shravak Publisher: Nirnaysagar Press View full book textPage 7
________________ अच्छ अश्व अति चपल नित, धकत कुगतिकी ओर । थाँभत भवज्ञाता सुधी, खेंचि सु जिनवच डोर ॥२॥ इंदियधुत्ताणमहो, तिलतुसमित्तंपि देसु मा पसरं। जइ दिण्णो तोणीओ,जत्थ खणो वरिसकोडिसमं३ सोरठा। तिलतुसमात्र प्रसार, अक्ष ठगनको जनि करहु । नहिं तो नरक तयार, कोटि बरससे पल जहां ॥३॥ अजिइंदिएहिं चरणं, कट्ठव घुणेहि किरइ असारं। तो धम्मत्थिहि दड्डूं, जइयव्वं इंदियजयंमि ॥ ४॥ जह कागिणीइ हेउं, कोडी रयणाण हारए कोई । तह तुच्छविसयगिद्धा,जीवा हारंति सिद्धिसुह।।५॥ नरेन्द्र छन्द (जोगीरासा)। इन्द्रियदम विन पोच चरित सब, जीर्ण काष्ठवत जानो । तातें श्रावकधर्म चहो तो, अविचल उद्यम ठानो॥ कानी कौड़ी हेतु कोउ शठ, कोटि रतन ज्यों हारै। तुच्छ विषयमें रक्त होय तिमि, जीव मोक्षसुख टारै ॥५॥ तिलमित्तं विसयसुहं, दुहं च गिरिरायसिंगतुंगपरं भवकोडिहिंण णिहइ,जंजाणसुतं करिज्झासु॥६॥ सोरठा। गिरि समान दुखदाय, तिल प्रमान हू विषयसुख। । कोटिक भव लगि पाय, जो जानै सो कर जिया॥६॥Page Navigation
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