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(१८) नर हू अबलानिकी संगतिमें ।
अवशेहि परै दुखपंकतिमें ॥५४॥ हरिहरचउराणणदसूरखंदाइणोवि जे देवा । णारीण किंकरतंकुणंति घिद्धी विसयतिण्हा॥५५॥
चौपाई। हरि हर ब्रह्मा कार्तिकस्वामी। निशिकर दिनकर जे सुर नामी ॥ ते सब होत नारिके दासा । धिक धिक धिक धिक यह विषयाशा ॥ ५५ ॥
इन्द्रवज्रा। सीअंच उण्हं च सहति मूढा इत्थीसु सत्ता अविवेअवंता। इलाइपुत्तं व चयंति जाई जीअं च णासंति अ रावणुव्व ॥ ५६ ॥
चौपाई। जे मतिहीन युवति अनुरागी। ते इलाचिसुत सम कुलत्यागी॥ शीत ताप अत्यन्त उपावें। वा रावण इव प्राण गमावें ॥५६॥
आयो।
वुत्तूणवि जीवाणं सुदुक्कराई ति पावचरियाई। १ इसका अभिप्राय ठीक २ समझमें नहीं आया।