Book Title: Indriya Parajay Shatak
Author(s): Buddhulal Shravak
Publisher: Nirnaysagar Press
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(२०)
दोहा। कृमि ज्यों विष्टांकुंडमें, समझुत सुक्ख सदीव ।
मगन होय तिमि विषयमें, सुख मानत सठ जीव ॥६॥ मयरहरोव जलेहि, तहवि हु दुप्पूरओ इमो आदा। विसयामिसंमि गिद्धो, भवे भवे वच्चइ ण तत्ति॥६॥
जैसे जलसों ना भरै, कबहुं उदधिको कोष । त्यों विषयामिषंगृद्ध जिय, लहहिं न भव भव तोष॥६॥
विसयविसट्टा जीवा उब्भडरूवाइएसु विविहेसु । भवसयसहस्सदुलहं ण मुणंति गयंपि णिअजम्मं ।। ६२ ॥
पद्धरी। विष विषयमाहिं पीड़ित अतीव । उद्भटस्वरूप बहु धरत जीव ॥ नहिं जानत नर भव वृथा जात । जो लक्ष भवांतरमें लहात ॥ ६२ ॥ चिट्ठति विसयविवसा मुत्तं लजपि केवि गयसंका। न गणंति केवि मरणं
विसयंकुससल्लिया जीवा ॥ ६३ ॥ १ विषयरूपी मांस । २ नाना प्रकारकी कुचेष्टा करते हैं।

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