Book Title: Indriya Parajay Shatak
Author(s): Buddhulal Shravak
Publisher: Nirnaysagar Press
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(२२) सकोवि णेव खंडइ, माहप्प मडुप्फुरं जए जेसिं । तेवि णराणारीहिं, कराविआ णिय य दासत्त॥६७॥
जिनको यशमाहात्म्य पुरन्दर। मेटि सकै, नहिं हैं जगनरवर ॥ तिनतें निजदासत्व करावें।
अबला यो सबला कहलावैं ॥ ६७ ॥ जउणंदणो महप्पा, जिणभाया वयधरो चरमदेहो। रहणेमी राइडई, रायमई कारिधी विसया ॥६॥
अरिल्ल। यदुनन्दन महा पुरुष, नेमिजिन भ्रात जो। पंचमहाव्रत धारक, अन्तिमगात जो ॥ ऐसो यदु रथनेमि, नेमि नारीतनी। रागरूप बुधि करी, विषय प्रति धिक घनी ॥६८॥ मयणपवणेण जइ तारिसावि सुरसेलणिचला चलिया। ता पकपत्तसत्ता-ण इयरसत्ताण का वत्ता ॥ ६९ ।।
दोहा। अहो मदनके पवनतें, मुनिमनमेरु डिमात ।
पक्कं पानवत सत्वं जिन, तिन जनकी कह बात ॥१९॥ . १ इन्द्र । २ पके हुए पत्तेके समान ।

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