Book Title: Indriya Parajay Shatak
Author(s): Buddhulal Shravak
Publisher: Nirnaysagar Press

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Page 34
________________ (३०) हरिगीतिका छन्द । संसार मारगमें भयानक विषय लूकें बहत हैं। प्रगटी मनो ऋतु ग्रीष्म तामें जीव जगके तपत हैं।। है हित कहा, अनहित कहा, सो नेकु ना चित धरत हैं। अतिशय अनन्तानन्त दुखको हाय अनुभव करत हैं ९१ हा हा दुरंत दुठ्ठा, विसयतुरंगा कुसिक्खिया लोए । भीसणभवाडवीए, पाडति जिआण मुद्धाणं ॥९॥ पद्धरी छंद । हा विषय वाज इस जगमँझार । अति दुष्ट कुशिक्षित दुर्निवार ॥ मतिहीन दीनको देत डार ॥ अति भीषण भवअटवीमँझार ॥ ९२॥ विसयपिवासातत्ता, रत्ता णारीसु पंकिलसरंमि । दुहिया दीणाखीणा, रुलंती जीवा भववर्णमि ९३ दोहा। विषय तृषासों तपत अति, रक्त नारि-सर-कींच । दीन हीन दुखिया सकल, रुलत जगत बन बीच ९३ गुणकारियाइ धणियं धिरज णिअंतिआइ तुह जीव । णिययाइ इंदियाई वल्लिणिअत्ता तुरंगुब्व ॥ ९४॥

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