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श्रीजितेन्द्रियाय नमः
श्रीइन्द्रियपराजयशतक ।
भाषा पद्यानुवाद सहित ।
प्रकाशक
बुडूलाल श्रावक.
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श्रीसम्यक्चारित्राय नमः। श्रीइन्द्रियपराजयशतक.
भाषा पद्यानुवाद सहित।
जिसका बुद्भूलाल श्रावक, देवरी जिला सागर निवासी हिन्दीभाषामें पद्यानुवाद किया।
और
बम्बईके निर्णयसागर प्रेस, कोलभाट लेन नं. २३ में बा-रा. घाणेकस्के
प्रबंधसे छपाकर प्रसिद्ध किया.
प्रथमवार १००.]
[श्री वीरनिर्वाण सम्वत् २४३८
मूल्य दो आना।
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Published by Buddhulal Shrawak at Hissar.
Printed by B. R. Ghâņekar at the: “ Nirnaya-sâgar *
Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay,
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प्रस्तावना।
पाठकगण ! इस छोटेसे ग्रंथको जो कि आपके हस्तगत है शाह
जा भोगीलाल ताराचन्दजीने अहमदाबादमें गुजराती भाषान्तर र सहित प्रकरणमालामें छपाया है । ग्रंथ उपयोगी और सरस है, संस्कृतादिमें इसकी अन्यान्य टीका हुई होंगी, परन्तु वे मेरे देखनमें नहीं आई । मैंने केवल उपर्युक्त पुस्तकपरसे हिन्दी साहित्यके प्रेमियोंकी सेवा की है । जहांतक होसका है, गाथाका सम्पूर्ण आशय पद्यमें लानेका प्रयत्न किया है, और इस विषयमें महाराज सोमप्रभाचार्यजीविरचित
और पंडित बनारसीदासजी द्वारा अनुवादित सूक्तमुक्तावलीका अनुकरण किया है। ___ अनुसंधान करनेसे यही प्रतीत हुआ है कि, इस ग्रंथके कर्ता एक श्वेताम्बराचार्य्य हैं । परन्तु पाठकगण ! यदि आप इसे आद्योपान्त वांच जावेंगे, तो आपको विदित हो जावेगा कि, इस ग्रंथमें कोईभी साम्प्रदायिक झगड़ा नहीं है । हां ! जो श्वेताम्बरके नाममात्रसेही चिड़ते हैं, उनके लिये कुछ उपाय नहीं है । परन्तु हम यह बात उच्च खरसे कहेंगे कि, जो मनुष्य देवदुर्लभ और अनन्तभूत कालसे अमिल ऐसे सम्यक्चारित्रका लालसी है, वह चाहे दिगम्बर या श्वेताम्बरके गृहमें उपजा हो, और चाहे अन्य ब्राह्मण क्षत्रियादिकी संतान हो, उसे यह ग्रंथ मंत्रका काम देनमें समर्थ होगा । अस्तु ! हम जैसोंकी छुद्र लेखिनीसे ऐसे अपूर्व और लाभकारी ग्रंथकी प्रशंसा लिखी जाना ग्रंथका गौरव घटाना है । पाठक इसे स्वयम् पढ़ें और अपनी क्षयोपशम शक्तिके अनुसार ज्ञान वैराग्यका अनुभव करें। इस पुस्तकमें ऐसी बहुतसी गाथाएँ और छंद हैं, जो शास्त्रसभा और व्याख्यानके समय दृष्टान्तों और उपदेशोंके पुष्टीकरण करनेमें उपयोगी हो सकते हैं, अतः देशके वक्ताओं, श्रोताओं,
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(२)
उपदेशकों, शिक्षकों और विद्यार्थियोंसे हम आग्रह करते हैं कि, वे इस पुस्तकसे अवश्य लाभ लेवें और हमारा परिश्रम सफल करें । बालकोंके सुकोमल हृदयमें प्रारंभसे ही वैराग्य और ब्रह्मचर्यका अंकुरारोपण होजावे, इस लिये दिगम्बर श्वेताम्बर और अन्य धर्मावलम्बियोंकी पाठशालाओंमें यह ग्रंथ पढ़ाया जावे, तो भी अधिक लाभकी संभावना है। ग्रंथ और स्वाध्यायका मुख्य तात्पर्य्य अपने और दूसरोंके आत्माको मिथ्यात्व अज्ञान और कषायसे बचाकर सम्यक्चारित्र ग्रहण करानेका है आशा है कि, सुज्ञ पाठकगण हमारे इस छोटेसे निवेदनपर अवश्य ध्यान देंगे।
पुद्गल वर्गणाएं स्वभावसे ही वर्ण शब्दादिरूप परिणमन करती हैं, इस लिये इस ग्रंथके प्रकाशित करनेमें यद्यपि मेरी कुछ भी करतूति नहीं हैं, तो भी यह लिखना आवश्यक है कि, धर्म और समाजकी इस प्रकार सेवा करनेका मुझे यह प्रायः पहिलाही अवसर है । इस लिये इसमें अनेक त्रुटियां होनेकी संभावना है। उन्हें विचारशील पाठक मुझे बालक जान क्षमा करेंगे । और पत्रद्वारा सूचना देकर अपनी सज्जनताका परिचय देंगे. जिससे द्वितीयसंस्करणमें त्रुटि निवारण करनेकी चेष्टा की जासके।
भवदीय
बुद्धलाल श्रावक, अध्यापक श्रीजैनअनाथाश्रम, हिसार (पंजाब),
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Se
श्रीजितेन्द्रियाय नमः ।
इन्द्रियपराजयशतक । भाषापद्यानुवादसहित ।
मंगलाचरण ( अनुवादककी ओरसे ) छंद मालिनी ।
वृषभ प्रथम स्वामी, मुक्तिदानी नमामी | तुवमुखप्रगटानी, दिव्यवानी नमामी | तुवपदविसरामी, आत्मध्यानी नमामी | तुववचसरधानी, तत्वज्ञानी नमामी || १॥ आर्या ।
सुचि सूरो सोचे-व, पंडिओ तं पसंसिमो णिचं | इंदियचोरेहिं सया, लुट्टियं जस्स चरणधणं ॥ १ ॥ दोहा ।
शूरवीर पंडित वही, सदा प्रशंसागार ।
चारितधन जाकौ नहीं, हरत अक्ष-बटमार ॥ १ ॥ इंदियचवलतुरंगे, दुग्गइमग्गाणुधाविरे णिचं | भाविअ भवस्सरूवो, रुंभइ जिणवयणरस्सीहिं ॥२॥
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अच्छ अश्व अति चपल नित, धकत कुगतिकी ओर ।
थाँभत भवज्ञाता सुधी, खेंचि सु जिनवच डोर ॥२॥ इंदियधुत्ताणमहो, तिलतुसमित्तंपि देसु मा पसरं। जइ दिण्णो तोणीओ,जत्थ खणो वरिसकोडिसमं३
सोरठा। तिलतुसमात्र प्रसार, अक्ष ठगनको जनि करहु । नहिं तो नरक तयार, कोटि बरससे पल जहां ॥३॥ अजिइंदिएहिं चरणं, कट्ठव घुणेहि किरइ असारं। तो धम्मत्थिहि दड्डूं, जइयव्वं इंदियजयंमि ॥ ४॥ जह कागिणीइ हेउं, कोडी रयणाण हारए कोई । तह तुच्छविसयगिद्धा,जीवा हारंति सिद्धिसुह।।५॥
नरेन्द्र छन्द (जोगीरासा)। इन्द्रियदम विन पोच चरित सब, जीर्ण काष्ठवत जानो । तातें श्रावकधर्म चहो तो, अविचल उद्यम ठानो॥ कानी कौड़ी हेतु कोउ शठ, कोटि रतन ज्यों हारै। तुच्छ विषयमें रक्त होय तिमि, जीव मोक्षसुख टारै ॥५॥ तिलमित्तं विसयसुहं, दुहं च गिरिरायसिंगतुंगपरं भवकोडिहिंण णिहइ,जंजाणसुतं करिज्झासु॥६॥
सोरठा। गिरि समान दुखदाय, तिल प्रमान हू विषयसुख। । कोटिक भव लगि पाय, जो जानै सो कर जिया॥६॥
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शार्दूलविक्रीडित । भुंजता महुरा विवागविरसा, किंपागतुल्ला इमे, कच्छूकंडुअणं व दुक्खजणया, दाविंति बुद्धिं सुहे।। मज्झण्हे मयतिण्हियबसययं,मिच्छाभिसंधिप्पया, भुत्ता दिति कुजम्मजोणिगहणंभोगामहावैरिणो७
. मत्तगयंद (सवैया)। भोगतमें मधुसे परिणाममें,
हैं किमपाकसे प्राण हनैया । खाज खुजावतमें रस आवत,
_यों दुखमें सुखबुद्धि दिवैया ॥ ग्रीषमकी मृग प्यास समान,
वृथा विपरीत विभाव बिछैया। भोग महा रिपु भूरि कुजोनिमें, भोगनहारकों डारत भैया ॥७॥
अनुष्टुप् । सका अग्गि णिवारेउं, वारिणो जलिउवि हु । सव्वोदहिजलेणावि, कामग्गी दुण्णिवारओ॥६॥
दोहा। दावा अनल प्रचंड अति, बुझत गिरत जलधार । पै सागर भर सलिलसों, कामानल अनिवार ॥ ८॥
___ आर्या।। विसमिव मुहंमि महुरा, परिणाम णिकाम दारुणा विसया ॥
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( ४ )
कालमणंतं भुत्ता, अज्झवि मुत्तं न किं जुत्ता ॥ ९ ॥ तोटक छंद ।
विषयानिविषै पहिलें कल है । विषतें अति दारुण हू फल है ॥ चिरकालतें भोगत आतम है । नहिं छोड़ क्या यह लाजिम है ? ॥ ९ ॥ विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न जाणई जीवो ॥ झूर कलणं पच्छा, पत्तो णरयं महाघेोरं ॥ १० ॥ दोहा ।
विषय विरस मदमें मतौ, भल अनभल न सुझाय । घोर शुभ्रमें जब परै, तब आतम बिललाय ॥ १० ॥ जह बिहुमपत्तो, कीडो कडुअंपि मण्णए महुरं || तह सिद्धिसुहपरुक्खा, संसारदुहं सुहं वित्ति ॥ ११ ॥ कटुक नीमकों कीट ज्यों, मधुर मान भख लेत । त्यों शिवसुखतें विमुख भवि, दुखहिं गिनत सुखखेत ॥ ११ ॥ अथिराण चंचलाण य, खण मित्त सुहंकराण पावाणं । दुग्गइणिबंधणाणं, विरमसु एआण भोगाणं ॥ १२ ॥ भोग निबंधक कुगतिके, महा पापके धाम । अथिर चपल छणसुखद ये, तजहु आतमाराम ॥ १२ ॥ १ चैन ।
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पत्ताय कामभोगा सुरेसु असुरेसु तह य मणुएसु॥ ण यजीव तुज्झ तित्ती जलणस्सव कट्ठणियरेण १३ काम भोग भोगे जिया, नर सुर असुरमँझार। . भयो तृप्त नहिं नेकु हू, काठ अनल उनहार ॥ १३ ॥
उपजाति । जहा य किंपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुंजमाणा। ते खुट्टए जीविय पञ्चमाणा एओवमा कामगुणा विवागे ॥ १४ ॥
चौपाई। फल किम्पाक रंग रस जैसो। खावत लगै मनोहर तैसो ॥ पचै ततच्छन प्राण नसावै । काम भोग तिमि फल उपजावै ॥ १४॥
_ अनुष्टुप् । सव्वं वीलविअंगीयं, सव्वं णटुं विडम्बणा। सव्वे आभरणाभारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥१५॥
गाना मानो है बिललाना। नाटक नृत्य विडम्ब समाना॥ भूषण सकल भार सम जानो। काम भोग सब दुख सरधानो ॥ १५ ॥
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आर्या। देविंदचक्कवट्टि-तणाइ रजाइ उत्तमा भोगा। पत्ताअणंत खुत्तो ण यहं तत्तिंगओ तेहिं ॥ १६ ॥
दोहा। सुरपति नरपति राज्य अरु, सरस भोगके कोष ।
भोगे बार अनन्त लगि, तऊँ न पायो तोष ॥ १६ ॥ संसारचकवाले सब्वेवि य पुग्गला मए बहुसो। आहारिया य परिणा-मिया यण य तेसु तित्तोऽहं१७
चक्रवालमें जगतके, पुदगल द्रव्य अशेष । खाय परिणवे बार बहु, लही तृप्ति ना लेश ॥१७॥
अनुष्टुप् । उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी णोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई ॥१८॥
तोटक। लिपटाय रहैं भव भोगनमें । वह भूरि भमै भव काननमें ॥ जिहिं रंचहु राग न भोगनको ।
पद पावत है वह सिद्धनको ॥ १८ ॥ अल्लोसुको य दो छुढा गोलया मट्रियामया। दोवि आवडिआ कूडे जो अल्लो तत्थ लग्गई१९॥ एवं लग्गंति दुम्मेहा जे णरा कामलालसा। विरत्ताओ ण लग्गंति जहा सुके य गोलए॥२०॥
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नरेन्द्र छंद (जोगीरासा) सूखे गीले मिट्टीके दो, पिंड भीतिपै मारो। चिपक रहेगो गीला गोला, यह दृष्टान्त विचारो॥ कामलालसी गीले गोले, जगमें उलझ रहे हैं। हैं विरक्त ते शुष्क पिंड सम, पद उतकृष्ट लहे हैं १९॥२०
आयो। तणकटेहि व अग्गी लवणसमुद्दो गईसहस्सेहिं । ण इमो जीवो सक्को तिप्पेउं कामभोगेहिं ॥२१॥
दोहा। सहस सरित" लवणदधि, तृण ईंधनतें आग ।
ज्यों न अघावै जीव त्यौं, काम भोगमें लाग ॥२१॥ भुत्तूणवि भोगसुहं सुरणरखयरेसु पुण पमाएण । पिजइणरएसु भवे कलकल तउ तंबपाणाई॥२२॥
सोरठा। भोगे विषय कषाय, सुर नर खगगतिमें जिया। तातें देत पियाय, ताम्र औंटकर नरकमें ॥ २२॥
को लोभेण ण णिहओ कस्स ण रमणीहिं भोलिअं हिययं । को मञ्चुणा ण गहिओ को गिद्धो णेव विसएहिं ॥ २३ ॥
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(८)
तोटक। वश लालचके कहु को न मस्यौ? । यमके मुखमें कहु को न पस्यौ? ॥ किनको चित कामिनि नाहिं हस्यौ? । किनने न विषैअनुराग कस्यौ? ॥ २३ ॥
___उपजाति छन्द । खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा । पगाम दुक्खा अणिकाम सुक्खा ॥ संसारमोक्खस्स विपक्खभूआ। खाणी अणत्थाणउ कामभोगा॥ २४ ॥
तोटक। छिनकौं कनसे सुखदायक हैं। चिरकाल घने दुखदायक हैं । शिव मारगमें दृढ़ घायक हैं। भवभोग अनर्थसहायक हैं ॥ २४ ॥
आर्या । सव्वगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायड्डि । कामग्गहो दुरप्पा जेणभिमूअं जगं सव्वं ॥२५॥ जह कच्छुल्लो कच्छू कंडुअमाणो दुहं मुणइ सुक्खं। मोहाउरा मणुस्सा तह कामदुहं सुहं विंति ॥२६॥ १ बहुत ही थोड़े (कणके बराबर)।
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नरेंद्र (जोगीरासा)। सकल ग्रहनको जनक महा ग्रह, सब दूषन उपजावै । काम दुरातम सबही जगको, वश करि नाच नचावै ॥ खजया खाज खुजावतमें ज्यों, दुखहीकों सुख मानै । तिमिमोहातुर कामभोगमें, सुखद कल्पना ठानै ॥२५॥२६॥
अनुष्टुप् । सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा । कामे य पत्थमाणाजे अकामा जति दुग्गइं॥२७॥
दोहा। शल्य काम विष काम है, आशीविष है काम । जिय जाकी रुचिमात्रतें, लहैं कुगति दुखधाम ॥२७॥
विसए अवइक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे । विसएसु निराविक्खा तरंति संसारकंतारे ॥२८॥
सोरठा। विषयविर्षे निरपेच्छ, भव अटवीतें ते तरै। ।
अरु जे कछु सापेच्छ, घोर भवोदधिमें परें ॥२८॥ छलियाअवइक्खंता निरावइक्खा गया अविग्घेणं। तम्हा पवयणसारे णिरावइक्खेण होअव्वं ॥२९॥
दोहा । लहि निरीह शिव विन विघन, ठगे जाहिं विषयेच्छु । तातें प्रवचन-सार यह, होहु सुधी निरपेच्छु ॥ २९ ॥ १ अपेक्षारहित । २ वन । ३ अपेक्षासहित । ४ इच्छारहित ।
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विसयाविक्खो णिवडइ णिरविक्खो तरइ दुत्तरभवोघं देवी दीव समागम भाउअजुअलेण दिलुतो॥३०॥
दोहा। जिनरक्षित-जिनपालसम, रत्न द्वीपमें जाय । परें, तरै नर विषयकी, इच्छानिच्छसहाय ॥ ३० ॥ जं अइतिक्खं दुक्खं जं च सुहं उत्तमं तिलोअंमि। तं जाणसु विसयाणं वुड्डिक्खयहेउअंसबं॥३१॥
दोहा। दारुण दुख अरु सरस सुख, जेते तीन जहान । विषयचाहकी वृद्धि अरु, नाश हेतुतें जान ॥ ३१ ॥ इंदियविसयपसत्ता पडंति संसारसायरे जीवा । पक्खिव्व छिण्णपंखा सुसीलगुणपेहुणविहूणा।।३२।।
दोहा। इन्द्रियविषयासक्त जन, संजमशीलविहीन। छिन्नपंख पंखीनिसम, परै भवोदधि दीन ॥ ३२॥
ण लहइ जहा लिहतो मुहल्लियं अडिअं जहा सुणओ। सोसइ तालुअ रसि विलिहंतो मण्णए सुक्खं ॥ ३३ ॥ महिलाण कायसेवी ण लहइ किंचि वि सुहं तहा पुरिसो ।
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( ११ )
सो aur aaओ सयकायपरिस्समं सुक्खं ॥ ३४ ॥ जुम्मं दुर्मिल ( सबैया ) |
भ्रमके वशमें फँसि कूकर ज्यों, रसके हित अस्थि चबाबत है । निज श्रोणित चाखत मोद भरो, पर नेकु विवेक न लावत है ॥ नर हू वनिता तन सेवनतें, तनिक न कयूँ सुख पावत है । निज देह परिश्रमके मिसतें, सुखकी सठ भावना भावत है ॥३३-३॥१
सुविमग्गिजंतो
कत्थवि कयलीइ णत्थि जह सारो । इंदियविसएस तहा
णत्थि सुहं सुविगविहं ॥ ३५ ॥ दोहा ।
बहु विधि खोजत हू नहीं, रेम्भथम्भ में सार । तैसे इन्द्रियविषयसुख, जानहु सदा असार ॥ ३५ ॥ सिंगारतरंगाए विलासवेलाइ जुव्वणजलाए । के के जयंमि पुरिसा णारीणइए ण बुडुंति || ३६ ||
१ केलेका खंभ |
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३
(१२) जोवन सलिल विलास तट, अरु शृंगार तरंग । को को नर बूड़े नहीं, वनिता सरिता संग ॥ ३६ ॥
सोअसरी दुरिअदरी कवडकुडी महिलिया किलेसकरी । वइरविरोपणअरणी दुखखाणी सुक्खपडिवक्खा ॥ ३७॥
तोटक। तिय शोकनदी अघचूल अहै। अरिणी सम द्रोहकीआग दहै ॥ छल कुंड भरी केलि कारिणी है। दुखखानि सदा सुखहारिणी है ॥ ३७॥ अमुणि अमण परिकम्मो सम्मं को णाम णासिउं तरई। वम्महसर पसरोहे दिद्विच्छोहे मयच्छीणं ॥ ३८॥
चौपाई। चित्त विशुद्ध कियो जिन नाहीं । ऐसे मानव को जगमाहीं ॥ मृगनैनीतें वरसन हारे । वक्र चितौन वान जिन टारे ॥ ३८॥
१ चकमकपत्थर । २ तकरार ।
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(१३ ) परिहरसुतओ तासिं दिट्ठी दिट्ठीविसस्सवअहिस्स। जं रमणिणयणबाणा चरित्तपाणे विणासंति ॥३९॥
दोहा। जा नारीके नैन शर, नाशत चारितप्रान ।
दृष्टीविषअहि सम नजर, तजौ ताहि बधिवान ॥३९॥ सिद्धंतजलहिपारंगओवि विजिइंदिओवि सूरोवि । दिढचित्तोवि छलिजइ जुवइपिसाईहि खुड्डाहिं ४०
तोटक । परमागम सागर पार कियो। वश अच्छ किये दृढ़ जासु हियो । अति भूरि पराक्रम है जिनको ।
यह डाइन नारि छलै तिनको ॥ ४० ॥ मणयणवणीयविलओ जह जायइ जलणसंणिहाणम्हि । तह रमणि-संणिहाणे विद्दवइ मणो मुणीणंपि ॥ ४१ ॥
दोहा। अनल निकट गलि जात जिमि, माखन मोम तुरंत । तिमि वनिताके ढिग वसत, मुनिजनचित्त चलंत॥४१॥
णीअंगमाहि सुपओ
हराहि उप्पिच्छमंथरगईहिं । १ एक प्रकारका सांप जिसकी दृष्टि पड़नेसे विष चढ़ जाता है।
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( १४ ) महिलाहि णिम्मगा इव गिरिवरगुरुआवि भिझंति ॥ ४२ ॥ पयोधारिनी निम्नगा, गति धीमी मनहार । गिरिवरसे गिरि जात परि, वनिता सरिता धार ॥४२॥ विसयजलं मोहकलं विलासविव्वोअजलयराइण्णं मयमरयं उत्तिण्णा तारुण्णमहण्णवं धीरा ॥४३॥
अरिल्ल। मोह पक जल विषय, मगर अभिमान हैं। हावर भाव विलास, जन्तु उनमान हैं। ऐसौ यौवन महा, समुद्र अपार है ।
धीरवीर नर ताकौ, पावै पार है ॥ ४३ ॥ जइवि परिचत्तसंगो तवतणुअंगो तहावि परिवडई। महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसियमुणिव्व ॥४४॥
तोटक। तजि संग कुटुम्ब भये तपसी। तपतें जिनने निज देह कसी ॥ वनिता संग ते नर हू विनसे ।
गनिकाग्रह ज्यों मुनिराज वसे ॥४४॥ सव्वग्गंथविमुक्को सीईभूओपसंतचित्तो अ। जंपावइ मुत्तिसुहं ण चकवट्टीवि तं लहई ॥४५॥
. दोहा। सर्व परिग्रह” रहित, शान्ति शान्तचित जोय । ताके जैसो सुख नहीं, चक्रपतीको होय ॥४५॥
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खेलंमिपडिअमप्पंजह ण तरइ मच्छिआविमोएऊ। तह विसयखेलपडिअंण तरइ अप्पंपिकामंधो ४६॥
कफ़में फँसि माखी निजहिं, सकै नहीं सुरझाय । ___ कामअंध त्यों जीव हू, विषयविर्षे उरझाय ॥ ४६॥ जं लहइ वीयराओ सुक्खं तंमुणइ सुचिअणअण्णो णविगत्ता सूअरओ जाणइ सुरलोइअं सुक्खं४७॥
चौपाई। सुख विरागको लहहिं विरागी। जानहिं नहीं विषयअनुरागी॥ गर्तनिवासी शूकर जैसो।
सुरपुर सुख जानै नहिं कैसो ॥४७॥ जं अज्झवि जीवाणं विसएसु दुहावहेसु पडिबंधो । तंणज्झइ गुरुआणवि अलंघणिज्झो महामोहो४८॥
दोहा। अजहूं दुखदा विषयकों, धारत है जिय संघ । तातें जानौं मोह रिपु, गुरुजनतें हु अलंघ ॥ ४८ ॥ जे कामंधा जीवा रमंति विसएसु ते विगयसंका। जे पुण जिणवयणरया ते भीरू तेसु विरमंति ४९॥ कामअंध जे पुरुष ते, विलसत भोग निशंक । अरु जिनवचअनुरक्त ते, विरचैं करि जग शंक ॥४९॥
१ गड्ढा । २ महापुरुष ।
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(१६)
काव्यम् । असुइमुत्तमलपवाहरूवयं वंतपित्तवसमज्झफोफसं। मेअमंसबहुहड्डुकरंडयं चम्ममित्तपच्छाइयजुवइअंगयं ॥ ५० ॥
अरिल्ल। अशुचि मूत्र मल बहत, पित्त वान्ती भरी। नसैं वसा फोफसा, मेद मजा थरी ॥ मांस अस्थिकी मोट, चामसों बँकि रही। कामिनिकी इमि काय, घृणित अतिशय सही॥५०॥
इन्द्रवज्रा। मंसं इमं मुत्तपुरीसमीसं सिंघाण खेलाइअ णिज्झरं तं । एवं अणिचं किमिआण वासं पासं णराणं मइबाहिराणं ॥ ५१ ॥
अरिल्ल। आमिष मूत्र पुरीष, आदि मय जानिये। कफ श्लेषमको उद्गम, थान प्रमानिये ।। इमि तियको तन मलिन, अथिर कृमिवास है।
मानव जे मतिहीन, तिन्हें वह पास हैं ॥५१॥ १ कै, वमन । २ जाल।
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(१७)
आर्या । पासेण पंजरेण य बझंति चउप्पया य पक्खीई । इय जुवइपंजरेणय बद्धा पुरिसा किलिस्संति॥५२॥
. तोटक। दुखपिंजरमाहिं विहंग सहै। पशु पाशविर्षे जिमि त्रास लहै । नरहू तियके तिमि जार परैं। निह● करिके दुख भार भरै ॥ ५२॥
___ अनुष्टुप् । अहो मोहो महामल्लो जेण अम्मारिसा वि हु। जाणंतावि अणिच्चत्तं विरमंतिण खणं ति हु॥५३॥
__सोरठा। जानें अथिर तमाम, तोहू हम जैसे पुरुष । पावैं नहिं विसराम, अहो मोह है वीर वर ॥५३॥
आर्या । जुवईहिं सह कुणंतो संसग्गं कुणइ सयलदुक्खेहिं । ण हिमुसगाणं संगो होइ सुहोसह बिलाडेहिं॥५४॥
तोटक। वश मूसक माँजरिके परिके।
दुख पावत है निहचै करिके ॥ १ जालमें। २ बिल्ली।
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(१८) नर हू अबलानिकी संगतिमें ।
अवशेहि परै दुखपंकतिमें ॥५४॥ हरिहरचउराणणदसूरखंदाइणोवि जे देवा । णारीण किंकरतंकुणंति घिद्धी विसयतिण्हा॥५५॥
चौपाई। हरि हर ब्रह्मा कार्तिकस्वामी। निशिकर दिनकर जे सुर नामी ॥ ते सब होत नारिके दासा । धिक धिक धिक धिक यह विषयाशा ॥ ५५ ॥
इन्द्रवज्रा। सीअंच उण्हं च सहति मूढा इत्थीसु सत्ता अविवेअवंता। इलाइपुत्तं व चयंति जाई जीअं च णासंति अ रावणुव्व ॥ ५६ ॥
चौपाई। जे मतिहीन युवति अनुरागी। ते इलाचिसुत सम कुलत्यागी॥ शीत ताप अत्यन्त उपावें। वा रावण इव प्राण गमावें ॥५६॥
आयो।
वुत्तूणवि जीवाणं सुदुक्कराई ति पावचरियाई। १ इसका अभिप्राय ठीक २ समझमें नहीं आया।
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(१९) भयवं जा सा सासा पचाएसो हु इणमो ते ॥५॥ जललवतरलं जीयं अथिरा लच्छी विभंगुरो देहो। तुच्छा यकामभोगा णिबंधणंदुक्खलक्खाणं॥५०॥
दोहा।
जीवन जीवन-बुदबुदा, चपल चंचला जान । देह अथिर पोचे विषय, सत सहस्र दुखदान ॥५८॥
इन्द्रवज्रा। णागो जहा पंकजलावसण्णो दटुं थलं णाभिसमेइ तीरं। एवं जिआ कामगुणेसु गिद्धा सुधम्ममग्गे ण रया हवंति ॥ ५९॥
तोटक। जलपंकविष करिराज परै। थल देखत पै तट नाहिं धरै ॥ जिय त्यों विषयानिमें पागत है। सनमारगमें नहिं लागत है ॥ ५९॥
आर्या। जह विट्टपुंजखुत्तो, कीमि सुहं मण्णए सयाकालं। तह विसयासुइरत्तो, जीवोवि मुणइ सुहं मूढो॥६०॥ १ पानी (जीवन, पानीके बुदबुदेके समान है)। २ लक्ष्मी। ३ हाथी।
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(२०)
दोहा। कृमि ज्यों विष्टांकुंडमें, समझुत सुक्ख सदीव ।
मगन होय तिमि विषयमें, सुख मानत सठ जीव ॥६॥ मयरहरोव जलेहि, तहवि हु दुप्पूरओ इमो आदा। विसयामिसंमि गिद्धो, भवे भवे वच्चइ ण तत्ति॥६॥
जैसे जलसों ना भरै, कबहुं उदधिको कोष । त्यों विषयामिषंगृद्ध जिय, लहहिं न भव भव तोष॥६॥
विसयविसट्टा जीवा उब्भडरूवाइएसु विविहेसु । भवसयसहस्सदुलहं ण मुणंति गयंपि णिअजम्मं ।। ६२ ॥
पद्धरी। विष विषयमाहिं पीड़ित अतीव । उद्भटस्वरूप बहु धरत जीव ॥ नहिं जानत नर भव वृथा जात । जो लक्ष भवांतरमें लहात ॥ ६२ ॥ चिट्ठति विसयविवसा मुत्तं लजपि केवि गयसंका। न गणंति केवि मरणं
विसयंकुससल्लिया जीवा ॥ ६३ ॥ १ विषयरूपी मांस । २ नाना प्रकारकी कुचेष्टा करते हैं।
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( २१ )
विष विषयांकुश प्रेरित असीव । हो रहे अहो बहु विवश जीव ॥ निरलज्ज निशंक भये अनेक । यमराज कोप ना गिनत नेक ॥ ६३ ॥ विसयविसेणं जीवा, जिणधम्मं हारिऊण हा णरयं । वञ्चंति जहा चित्तय, णिवारिओ बंभदत्तणिवो॥६४॥ दोहा ।
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नरक परैं जिय विषयवश, हाय धरम विसराय । यातैं कियो विरक्त मुनि, ब्रह्मदत्त नरराय ॥ ६४ ॥ धिद्धी ताण णराणं, जे जिणवयणामयपि मुत्तूर्णं । चउगइविडंबणकरं, पियंति विसयासवं घोरं ॥ ६५ ॥ चौपाई | धिकधिकधिक ते नर हतभागी । जिनवचनामृतरसपरित्यागी ॥ चहुँगतिरूप विटम्बनकारी । विषय घोर मद पियत अनारी ॥ ६५ ॥ मरणेवि दीणवयणं, माणधरा जे गरा ण जंपंति । तेवि हु कुणंति लल्लिं, बालाणं णेहगहगहिला ६६
प्राण जाहिं पर गदगदवानी | नहिं बोलत जे नर अभिमानी ॥ बोलत दीन हीन ते वाचा । युवतिनेह जब गहै पिशाचा ॥ ६६ ॥
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(२२) सकोवि णेव खंडइ, माहप्प मडुप्फुरं जए जेसिं । तेवि णराणारीहिं, कराविआ णिय य दासत्त॥६७॥
जिनको यशमाहात्म्य पुरन्दर। मेटि सकै, नहिं हैं जगनरवर ॥ तिनतें निजदासत्व करावें।
अबला यो सबला कहलावैं ॥ ६७ ॥ जउणंदणो महप्पा, जिणभाया वयधरो चरमदेहो। रहणेमी राइडई, रायमई कारिधी विसया ॥६॥
अरिल्ल। यदुनन्दन महा पुरुष, नेमिजिन भ्रात जो। पंचमहाव्रत धारक, अन्तिमगात जो ॥ ऐसो यदु रथनेमि, नेमि नारीतनी। रागरूप बुधि करी, विषय प्रति धिक घनी ॥६८॥ मयणपवणेण जइ तारिसावि सुरसेलणिचला चलिया। ता पकपत्तसत्ता-ण इयरसत्ताण का वत्ता ॥ ६९ ।।
दोहा। अहो मदनके पवनतें, मुनिमनमेरु डिमात ।
पक्कं पानवत सत्वं जिन, तिन जनकी कह बात ॥१९॥ . १ इन्द्र । २ पके हुए पत्तेके समान ।
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(२३) जिप्पंति सुहेणं वि य, हरिकरिसप्पाइणो महाकूरा। इक्कब्विय दुजेयो कामो कयसिवसुहविरामो॥७०॥
करि हेरि अहि अति कूर हू, सहजहिं लीजे जीत । शिवसुखबाधक काम रिपु, दुर्जय जानो मीत ॥ ७० ॥ विसमा विसयपिवासाअणाइभवभावणाइजीवाणं। अइदुजेयाणी इं-दियाणि तह चंचलं चित्तं ॥७१॥ जियको विषम विषयतृषा, भावन जगत अनादि । तैसहि चंचल चित्त है, दुर्जय इन्द्री आदिः ॥ ७१ ॥
कलिमल अरइ अ भुक्खी वाही दाहाइ विविह असुहाई। मरणंपि य विरहाइसु
संपज्जइ कामतवियाणं ॥७२॥ दाह व्याधि कलिमल अरति, बहु दुख इष्टवियोग। भूख मरण आदिक लहहिं, कामतप्त जो लोग ॥७२॥
पद्धतिका। पंचिंदियविसयपसंगरेसि मणवयणकाय ण वि संवरेसि। तं वाहिसि कत्ति य गलपएसि
जं अट्ठकम्म णवि णिजरेसि ॥७३॥ * १ हामी। २ सिंह। ३ सांप।
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(२५) दहइ गोसीस सिरिखंड छारक्कए। छगलगहण?मेरावणं विक्कए ।
कप्पतरु तोडि एरंड सो वावए। जुज्झि विसएहिं मणुअत्तणं हारए ॥ ७६ ॥ स्वल्प विषयके हेतु, वृथा नर जन्म गमावै । मानो भस्मी हेतु, अगर अरु तगर जलावै ॥ अथवा ते अजकाज, मनो गजराज विकावें। करि सुरतरु निरमूल, मनो एरण्ड लगावैं ॥७६ ॥
__ अनुष्टुप् । अद्ध्वं जीवियं णिचं, सिद्धिमग्गं वियाणिया । विणिअट्टिज भोगेसु, आउ परिमिअमप्पणो॥७७॥
दोहा। आयु अल्पजीवन अथिर, शिवसुख अक्षय जान । काम भोगतै अति विरत, नित प्रति रहु बुधिवान ७७
आर्या। सिवमग्गसंठिआणवि जह दुजेया जियाण पणविसया। तह अण्णं किं पि जए
दुजेयं णत्थि सयलेवि ॥ ७॥ १ बकरा। २ करके।
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(२६) शिवमगगामी पुरुषकों, पांचों विषय सिवाय । नहीं और कछु जगतमें, जो ना जीत्यौ जाय ॥ ७ ॥ सविडंकुब्भडरूवा, दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी। आयहियं चिंतता, दूरयरेणं परिहरंति ॥७९॥
___ तोटक। सविकार तियातन सोहत है। अवलोकत ही मन मोहत है। निजआतमतन्त्व विचारत हैं।वह दूरहित परिहारत हैं ७९
सचं सुअंपिसीलं, विण्णाणं तह तवंपि वेरग्गं । वचइ खणेण सव्वं, विसयविसेणंजईणंपि।।८०॥
दोहा। ब्रह्मचर्य श्रुत सत्यता, तप विज्ञान विराग ।
मुनि ढिगते हू विषयवश, जात निमिषमें भाग ॥८॥ रेजीवसमइविगप्पिय; निमेससुहलालसो कहं मूढ। सासयसुह-मसमतम,हारिसिससिसोअरंच जसं ८१
अरिल्ल। शशि सम मनहर सुजस, जासु जग अमल है। जा समान नहिं और, मेरु सौ अटल है ॥ ऐसे सुखकी हार, करत जिय बावरे । निज कल्पित निमिषीक, विषयके दाव रे ॥ ८१॥
पजलिओ विसयअग्गी, चरित्तसारं डहिज कसिणंपि।
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(२७) सम्मत्तंपि विराहिय अणंतसंसारियं कुजा ॥ ८२॥
तोटक छंद। विषयानल पावत वृद्धि जबै । वह दाहत चारितसार तबै ॥ गुण सम्यक शुद्ध नशावत है। भव भार अनन्त बढ़ावत है ॥ ८२ ॥ ___ भीसणभवकंतारे विसमा जीवाण विसयतिण्हाओ।
जाए णडियाचउदस्सपुग्विविरुलंति हुणिगोए ॥ ८३ ॥
दोहा। विषय लालसा विषम है, भव भयवन्त पहार । पूरवधर हू जासु वश, रुलत निगोदमझार ॥ ८३॥
हा विसमा हा विसमा विसया जीवाण जेहि पडिबंधा। हिंडंति भवसमुद्दे अणंतदुक्खाइ पावंता॥ ८४॥
चौपाई। हा ! हा! विषम विषय फॅसि प्रानी। दुख अनंत पावत अज्ञानी ॥
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(२८) परै भवोदधिमें अकुलावें।
अहो परमगुरु यों समझावै ॥ ८४ ॥ माइंदजाल चवला विसया जीवाण विजुते अ समा। खणदिट्ठा खणणट्ठा ता तेर्सि को हु पडिबंधो॥ ८५ ॥
विषय चपल चपला सम जानो। इन्द्रजालसे छलिया मानो ॥ पलमें प्रगटै पलहिं पलावै ।
सो कैसैंकरि रोके जावें ॥ ८५ ॥ सत्तु विसं पीसाओ बेआलो हुअवहोवि पज्झलिओ। तं ण कुणइ जं कुविया कुणंति रागाइणो देहे ॥ ८६ ॥
गैरल पिशाच शत्रु वेताला । प्रजुलित प्रबल अनलकी ज्वाला ॥ है सब कुपित देहिं दुख जोई।
तौ रागादिक सम नहिं होई ॥ ८६ ॥ जो रागाईण वसे, वसंमि सो सयलदुक्खलक्खाणं। जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाइं ॥७॥
१ विष ।
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(२९)
दोहा । रागादिक वश जीव जे, लक्ख दुक्खके वश्य ।
रागादिक जिन वश किये, सब सुख लहहिं अवश्य८७ केवल दुहणिम्मविए, पडियो संसारसायरे जीवो । जं अणुहवइ किलेसोतं आसव हेउअंसव्वं ॥८॥
इह दुःखज संसारके, सागरमें परि जीव ।
जो दुख भोगत तासुसों, आस्रव करै सदीव ॥८८॥ ही संसारे विहिणा, महिलारूवेण मंडिअंजालं । बझंति जत्थमूढा,मणुआतिरिआसुराअसुरा८९
कीन्हों विधि या जगतमें, कामनि-पाश प्रसार । तामें नर पशु सुर असुर, हा! हा ! बँधे अपार ८९ विसमा विसय भुअंगा, जेहिं डसिआ जिआ भववणंमि । कीसंति दुहग्गीहि,
चुलसीईजोणिलक्खेसु ॥ ९०॥ विषम विषय-विषधर डस्यौ, भववनमें जिन गात ।
ते दुखमय ज्वाला सहत, धरत चौरासी जात ॥९॥ संसारचारगिझे, विसयकुवाएण लुकिया जीवा । हियमहियं अमुणंता, अणुहवइ अणंतदुक्खाइं ९१
१ जाल । .
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(३०)
हरिगीतिका छन्द । संसार मारगमें भयानक विषय लूकें बहत हैं। प्रगटी मनो ऋतु ग्रीष्म तामें जीव जगके तपत हैं।। है हित कहा, अनहित कहा, सो नेकु ना चित धरत हैं।
अतिशय अनन्तानन्त दुखको हाय अनुभव करत हैं ९१ हा हा दुरंत दुठ्ठा, विसयतुरंगा कुसिक्खिया लोए । भीसणभवाडवीए, पाडति जिआण मुद्धाणं ॥९॥
पद्धरी छंद । हा विषय वाज इस जगमँझार । अति दुष्ट कुशिक्षित दुर्निवार ॥ मतिहीन दीनको देत डार ॥
अति भीषण भवअटवीमँझार ॥ ९२॥ विसयपिवासातत्ता, रत्ता णारीसु पंकिलसरंमि । दुहिया दीणाखीणा, रुलंती जीवा भववर्णमि ९३
दोहा। विषय तृषासों तपत अति, रक्त नारि-सर-कींच । दीन हीन दुखिया सकल, रुलत जगत बन बीच ९३
गुणकारियाइ धणियं धिरज णिअंतिआइ तुह जीव । णिययाइ इंदियाई वल्लिणिअत्ता तुरंगुब्व ॥ ९४॥
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( ३१ ) धीरज डोर सम्हारिक, इन्द्रियरूपी बाज ।
वश करि राखें ही जिया, सुधरै तेरो काज ॥१४॥ मणवयणकायजोगा सुणिअंतातेवि गुणकरा हुंति। अणिअंता पुणभंजति, मत्तकरीणुव्व सीलवणं ९५
मन वच काया वश कियें, करें तेहु कल्यान । नातर मत्तगयंदवत, नशै, शीलउद्यान ॥ ९५ ॥ जह जह दोसा विरमद जह जह विसएहिं होइ वेरग्गं । तह तह विण्णायव्वं
आसण्णं से य परमपयं ॥ ९६ ॥ ज्यों ज्यों विषय विरागता, ज्यों ज्यों दोष विनाश ।
त्यों त्यों श्रावक सन्निकट, जानो पद अविनाश ॥१६॥ दुक्करमेएहिं कम, जेहिं समत्थेहिं जुव्वणत्थेहिं । भग्गं इंदियसिण्णं, धिइपायारं विलग्गेहिं ॥ ९७॥ तरुणवयसमें स्ववलतें, सजि धीरज प्राकार ।
इन्द्री दल जिन दलमल्यौ, कीन्हों सब कृति सार॥९७॥ तेधण्णा ताण णमो, दासोऽहं ताण संजमधराणं । अद्धच्छिपच्छिराओ, जाण ण हियए खडकंति ९८
___ पद्धरी छंद । तिरछी चितौनितें लखनहारि।
नहिं बास लहै जिन चितमँझारि ॥ १ घोड़ा । २ जवानीमें । ३ गढ़-परकोटा । ४ स्त्री।
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( ३२ ) ते धन्य धन्य सन्नियमधारि ।
हौं दास करौं जिहि नमस्कारि ॥ ९८ ॥ किंबहुणा जइवंछसि, जीव तुमं सासयं सुहं अरुहं। तापियसु विसयविमुहो, संवेगरसायणं णिच॥१९॥
सोरठा। निरुज अखय सुख जीव, चाहै तो तज विषय नित । संवेगामृत पीव, सार कहा बहु वादमें ॥ ९९ ॥
अनुवादककी प्रार्थना।। इन्द्रिय चोर चलाक, चुरावत चारित ज्ञाना । तिनकों है यह ग्रंथ, शरद शशि सम भयवाना ॥ यों करि दृढ़ विश्वास, देश भाषामयकीन्हों। होहु सदा जयवंत, मोर यह यत्न नवीनों ॥ पढ़ें सुनै अनुभवें, स्वपरहितकारक जानी । पावहिं सो विसराम, होयकर दृढ़श्रद्धानी ॥ करहिं अमल निज चरित, सुपथ गहि आतम ज्ञानी। तो मम श्रम है सफल, लहै जय गुरुवरवानी ॥ मैं मति मन्द अजान, धरमको मरम न जानौं। शब्द अर्थ अरु उभय,-माहिं असमर्थ अजानौं । । अति उपयोगी ग्रंथ, देखि मति मोर लुभानी।.. गहहु-तजहु जिमि हंस, सुगुण अवगुण पय पानी ॥
[समाप्तोऽयं ग्रन्थः]
१ अक्षय-अविनाशी।
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( २४ )
सोरठा । मनवचकाय सँभार, करै न इन्द्री विषयतें । करै न वसु अरि क्षार, धेरै कतरनी कंठ ते ॥७३॥ स्रग्विणी ।
किं तुमंधोसि किं वासि धत्तूरिओ । अहव किं सण्णिवाएण आऊरिओ ॥ अमयसमधम्म जं विस व अवमण्णसे । विसयविसविसम अमियं व बहु मण्णसे ॥ ७४ ॥ रोला ।
आतमजी कह अंध, भये कह कनक चबायौ । कै तुमने अब अमिट, रोग निरदोष उपायौ ॥ अमृत सम जिन बैन, ताहि किमि विष सरधानौ । विषम विषय विषरूप, ताहि अंमृत क्यों मानौ ॥७४॥ तुज्झ तुह णाणविण्णाणगुणडंबरो जलणजालासु निवडंतु जिअ निव्भरो ॥ पयइ वामेसु कामेसु जं रज्जसे
जेहि पुण पुणविणिरयाणले पञ्चसे ॥७५॥ रेजिय तो विज्ञान, ज्ञान गुनको आडम्बर | अग्निज्वालमें सर्व, परै अरु बरै निरन्तर || जाकारण तू अजहुं, वक्र भोगनमें राचै। नरक अग्निमें पच्यौ, नच्यौ अरु फिरि फिरि नाचै ७५
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________________ पुस्तक मिलनेके ठिकाने. (1) मैनेजर-श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय, हीराबाग पो० गिरगांव-बम्बई. (2) भीमशी माणिक जैन बुकसेलर, शाकगली पो० मांडवी-बम्बई. ( 3 ) शा० मेघजी हीरजी बुकसेलर, 566 पायधूनी-बम्बई.