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( १४ ) महिलाहि णिम्मगा इव गिरिवरगुरुआवि भिझंति ॥ ४२ ॥ पयोधारिनी निम्नगा, गति धीमी मनहार । गिरिवरसे गिरि जात परि, वनिता सरिता धार ॥४२॥ विसयजलं मोहकलं विलासविव्वोअजलयराइण्णं मयमरयं उत्तिण्णा तारुण्णमहण्णवं धीरा ॥४३॥
अरिल्ल। मोह पक जल विषय, मगर अभिमान हैं। हावर भाव विलास, जन्तु उनमान हैं। ऐसौ यौवन महा, समुद्र अपार है ।
धीरवीर नर ताकौ, पावै पार है ॥ ४३ ॥ जइवि परिचत्तसंगो तवतणुअंगो तहावि परिवडई। महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसियमुणिव्व ॥४४॥
तोटक। तजि संग कुटुम्ब भये तपसी। तपतें जिनने निज देह कसी ॥ वनिता संग ते नर हू विनसे ।
गनिकाग्रह ज्यों मुनिराज वसे ॥४४॥ सव्वग्गंथविमुक्को सीईभूओपसंतचित्तो अ। जंपावइ मुत्तिसुहं ण चकवट्टीवि तं लहई ॥४५॥
. दोहा। सर्व परिग्रह” रहित, शान्ति शान्तचित जोय । ताके जैसो सुख नहीं, चक्रपतीको होय ॥४५॥