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(२७) सम्मत्तंपि विराहिय अणंतसंसारियं कुजा ॥ ८२॥
तोटक छंद। विषयानल पावत वृद्धि जबै । वह दाहत चारितसार तबै ॥ गुण सम्यक शुद्ध नशावत है। भव भार अनन्त बढ़ावत है ॥ ८२ ॥ ___ भीसणभवकंतारे विसमा जीवाण विसयतिण्हाओ।
जाए णडियाचउदस्सपुग्विविरुलंति हुणिगोए ॥ ८३ ॥
दोहा। विषय लालसा विषम है, भव भयवन्त पहार । पूरवधर हू जासु वश, रुलत निगोदमझार ॥ ८३॥
हा विसमा हा विसमा विसया जीवाण जेहि पडिबंधा। हिंडंति भवसमुद्दे अणंतदुक्खाइ पावंता॥ ८४॥
चौपाई। हा ! हा! विषम विषय फॅसि प्रानी। दुख अनंत पावत अज्ञानी ॥