Book Title: Indriya Parajay Shatak
Author(s): Buddhulal Shravak
Publisher: Nirnaysagar Press

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Page 33
________________ (२९) दोहा । रागादिक वश जीव जे, लक्ख दुक्खके वश्य । रागादिक जिन वश किये, सब सुख लहहिं अवश्य८७ केवल दुहणिम्मविए, पडियो संसारसायरे जीवो । जं अणुहवइ किलेसोतं आसव हेउअंसव्वं ॥८॥ इह दुःखज संसारके, सागरमें परि जीव । जो दुख भोगत तासुसों, आस्रव करै सदीव ॥८८॥ ही संसारे विहिणा, महिलारूवेण मंडिअंजालं । बझंति जत्थमूढा,मणुआतिरिआसुराअसुरा८९ कीन्हों विधि या जगतमें, कामनि-पाश प्रसार । तामें नर पशु सुर असुर, हा! हा ! बँधे अपार ८९ विसमा विसय भुअंगा, जेहिं डसिआ जिआ भववणंमि । कीसंति दुहग्गीहि, चुलसीईजोणिलक्खेसु ॥ ९०॥ विषम विषय-विषधर डस्यौ, भववनमें जिन गात । ते दुखमय ज्वाला सहत, धरत चौरासी जात ॥९॥ संसारचारगिझे, विसयकुवाएण लुकिया जीवा । हियमहियं अमुणंता, अणुहवइ अणंतदुक्खाइं ९१ १ जाल । .

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