Book Title: Indriya Parajay Shatak
Author(s): Buddhulal Shravak
Publisher: Nirnaysagar Press

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Page 14
________________ नरेंद्र (जोगीरासा)। सकल ग्रहनको जनक महा ग्रह, सब दूषन उपजावै । काम दुरातम सबही जगको, वश करि नाच नचावै ॥ खजया खाज खुजावतमें ज्यों, दुखहीकों सुख मानै । तिमिमोहातुर कामभोगमें, सुखद कल्पना ठानै ॥२५॥२६॥ अनुष्टुप् । सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा । कामे य पत्थमाणाजे अकामा जति दुग्गइं॥२७॥ दोहा। शल्य काम विष काम है, आशीविष है काम । जिय जाकी रुचिमात्रतें, लहैं कुगति दुखधाम ॥२७॥ विसए अवइक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे । विसएसु निराविक्खा तरंति संसारकंतारे ॥२८॥ सोरठा। विषयविर्षे निरपेच्छ, भव अटवीतें ते तरै। । अरु जे कछु सापेच्छ, घोर भवोदधिमें परें ॥२८॥ छलियाअवइक्खंता निरावइक्खा गया अविग्घेणं। तम्हा पवयणसारे णिरावइक्खेण होअव्वं ॥२९॥ दोहा । लहि निरीह शिव विन विघन, ठगे जाहिं विषयेच्छु । तातें प्रवचन-सार यह, होहु सुधी निरपेच्छु ॥ २९ ॥ १ अपेक्षारहित । २ वन । ३ अपेक्षासहित । ४ इच्छारहित ।

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