Book Title: Indian Antiquary Vol 47
Author(s): Richard Carnac Temple, Devadatta Ramkrishna Bhandarkar
Publisher: Swati Publications

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Page 25
________________ JANUARY, 1918: NEW LIGHT ON THE GUPTA ERA AND NLHIRA KULA खाः ॥399 दुःषमावां सहसाबापतीतो धर्महानिसः। 394॥ पुरे पायलिघुपायये शिशुपालनहीपतेः। पापी तनूजः प्रधिकीसंदीपुर्णमादिकः ।। 385 11. चतुर्मुखाहब कल्की सजो विभूनमः। उत्पत्स्वते50 मपासंवत्सरबोयसमागमे ।। 396।। समानां सप्ततिस्तस्व परमायुः प्रकीर्तितम् । चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितियाक्रमकारिणः ।। 397 !! पण्वस्थुक्पापंडिवर्गस्वाज्ञाविधाविनः । निजभृत्वस्वमापाच महीं कृत्वां समोश्चति ।। 398 । अथान्याः स्वमिथ्यात्वपाकाविष्कृतचेतसा । पापरियुकिमस्माकं संस्वचाज्ञापगमुखाः ।। 3901i कथ्यतामति पापन प्रष्टष्वास्न मंषिणः। निथाः संसि देवेति ते करिबति सोपि तान् ।। 4001 भाचारः कीदृशस्तपामिति प्रस्वति भूपतिः । निजपाणिनामचा धनहीना गसला1401 | अहिंसावतरक्षाथै स्वतचेलादिसंबराः।। साधनं तपसो मस्या देशस्वित्वर्थमाह तिम् ।।402!! एकापुपोषितप्रांते मिक्षाकालेंगरर्शनात् । निर्वाचन स्वचामोक्कां महीनुमक्लिाषिणः।।4031॥ आत्मनो पायके वाबसमर्शिनः ॥ भुत्पिपासाशिवाधायाः सहाः सस्थापि कारणे ।।404 ।। परपापविनान्धरसमभिलाषुकाः। सो वा विहितावासा ज्ञानध्यामपरायणाः ।। 405 ।। अमृसंचारदेशेषु संपति मृगैः सह । इति स्वंति दृष्टं विशिष्टोस्तस्व मंदिनः ।। 406 ॥ श्रुत्वा वसहितुं नाई शक्रोम्बकमवर्तनम् । तेषां पापिपरे प्रायःपिंडःशुल्को विधीवताम् ||4071i इति रामोपदेशेन वाचियते नियोगिनः। ममपिंकन जानाः स्थास्वसि मुनयोपिते ।। 408 ।। तदृष्ट्वा सिंगो नमा मातां सहप्रवीप्सपः । किं जासमिति ने गवा ज्ञापविण्यात तं नृपम् ।। 409 || सोपि पापः सवं क्रोधारुनीभूतवीमनः। उचमी पिंडमाइतुं प्रस्फरशनच्छदः ।। 410 ।। साहुं वदामः कीचनसरापबा तस। लमिष्यति तमम्बा पक्का सम्वत गहि।।411 || सोपि रत्नम मां गत्वा सागरोपमनीषित: । चिरं चतुर्मुखो दुःखं लोभानुभविष्यति ॥412॥ ................................................ ............................................... 5So three Kannada MSS, of the Jaina Matha, Kolhapur, and one Nagari Ms. pf the late Maniksher of Bombay. But I reject the raading 46T in some Deocan College M88., which gives no sense. 51 अम. pot; ct. पाणिपाबी रिगंबरः। आहति-भाहार, food. वा-इव, भक्तावासाः। M The name of the first hell 65 सामरोपमःभसंख्ये क Tattvartharajavartika IIL, 38, 8 Bouares Ed., II, P140).

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