________________
आलोक
'रक्षा-बन्धन' प्रसादान्त नाटक हैं।
उद्देश्य की दृष्टि से ही वर्गीकरण में रस का समावेश भी हो जाता है। कुछ समीक्षक कथा को लेकर वर्गीकरण करते हैं--ऐतिहासिक, पौराणिक-सामाजिक, समस्या-प्रधान । ऐतिहासिक भी समस्या-प्रधान हो सकता है, पौराणिक भी। ऐतिहासिक-पौराणिक सामाजिक भी हो सकते हैं । 'ध्र वस्वामिनी' ऐतिहासिक होते हुए सामाजिक भी है और समस्या-प्रधान भी । इसलिए यह वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं जंचता। . ___ नाटक के सम्पूर्ण विषय, आदर्श और आस्था को दृष्टि में रखकर भी वर्गीकरण अनेक विद्वान् करते हैं। कुछ नाटक ऐसे होते हैं, जिनमें आदर्श चरित्र
और जीवन चित्रित रहते हैं। वैसे चरित्र चाहे संसार में मिले नहीं, पर वैसे ही, यह कामना उन नाटकों में रहती है। 'है' का आग्रह नहीं, 'चाहिए' का आग्रह उनमें शासन करता है । वे आदर्शवादी वर्ग में आते हैं। कुछ ऐसे भी नाटक होते हैं, जिनमें यथार्थ जीवन का चित्रण रहता है। मनुष्य का भौंडे-से-भौंडा रूप उनमें मिलेगा । चरित्रों में पाप-पुण्य भी उसी मात्रा में है, जिसमें वास्तविक जीवन पाया जाता है। ऐसे नाटक यथार्थवादी वर्ग में गिने जाते हैं। और कुछ ऐसे होते हैं, जिनमें प्राचीन परम्परा, शील, नियम श्रादि भंग करके स्वच्छन्द पथ अपनाया जाता है। इनमें कल्पना की प्रधानता तथा रोमान्चकर और विस्मयजनक तत्वों का अधिक समावेश होता है। इन्हें स्वच्छन्दतावादी या रोमांचवादी वर्ग में गिना जाता है। पर यह वर्गीकरण भी युक्तियुक्त और वैज्ञानिक नहीं।
भारत में दुःखान्त नाटक
हहने नाटकों के तीन वर्ग किये हैं-दुखान्त, सुखान्त और प्रसादान्त । भारतीय साहित्य में सुखान्त और प्रसादान्त नाटकों की रचना हुई-दुःखान्त नाटक लिखने का प्रयत्न नहीं हुआ। संस्कृत में जितने नाटक लिखे गए, सभी सुखान्त । 'उरुभंग' में दुर्योधन की मृत्यु अवश्य दिखाई गई है, पर वह भी दुःखान्त नहीं कहा जा सकता। दुर्योधन की मृत्यु देखकर शायद ही ही किसी को दुःख हो । उससे सामाजिक सुख ही अनुभव करेंगे। 'उत्तर रामचरित' करुणा से ओत-प्रोत होने पर भी दुःखान्त नहीं कहला सकता। राम और सीता का मिलन हो जाता है। अश्रभीगी पलकों में मुस्कान चमक उठती है। नाटक का अन्त सुख में है। भारतीय साहित्य की सहस्रों वर्ष की परम्परा में एक भी दुःखान्त नाटक न होना, सचमुच विस्मय-जनक है