________________ आइए मन्दिर चलें-५७ अपार शान्ति देकर उनका मन मोह लेते हैं। हरियालीसे ढ़की हुई पर्वतमाला की पृष्ठभूमि में ये श्वेत शिखर व पताका एक अपूर्व दृश्य उपस्थित करते हैं। हां, तो बाईं तरफ जो अलग से छत्री दिखाई दे रही है यह यशोभद्रसूरिजी की देवकुलिका है। ___ श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी 673 वि. में मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने वाले विदग्धराज के गुरु थे। इस मूर्ति की स्थापना सं. 1344 वि. में आसोज सुदी 11 को हुई। इसी छत्री में पादुकाएँ भी स्थापित हैं। मूर्ति के दोनों हाथ जोड़े हुए हैं। यह जो ईंटों से जड़ा हुना स्थान दिखाई दे रहा है इस स्थान पर 50 हजार को लागत से एक खेला-मण्डप बनेगा। मन्दिर के रंग-मण्डप में दो कलापूर्ण पाले हैं जिनमें बायें हाथ के पाले में मातंग यक्ष और दाहिने हाथ के पाले में सिद्धायिका देवी की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। इन अालों का नव-निर्माण हुअा है। पुराने पाले तो और जगह स्थित हैं जिनके बारे में समय पर बताऊँगा। इन पालों के स्थान पर हो विक्रमो सं. 1266 में रत्नप्रभु उपाध्यायजी के शिष्य पूर्णचन्द्रजी उपाध्याय के उपदेश से श्रावकों ने दो पाले बनवाए थे / यह रङ्ग-मण्डप नया ही है पर विक्रमी सं. 1011 में ज्येष्ठ वदी 5 को शान्तिभद्राचार्यजी के उपदेश से श्रावकों ने वामक नामक सेलावट के द्वारा बनवाया था। इसी दिन यशोभद्राचार्यजी को सूरि पद की प्राप्ति हुई थी। राता महावीरजी में इसकी जयन्तो मनाई गई होगी क्योंकि यशोभद्रसूरिजी को सूरि पद की प्राप्ति तो 668 वि. में मुण्डारा नगर में हुई थी। और यह है वह भगवान महावीर की 52 इञ्च की भव्य प्रतिमा। इस पर लाल विलेपन है अतः इस मन्दिर का नाम