Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 6
________________ | V ] सप्तम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त और जैनकर्म सिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करता है और यह बताता है कि गुणस्थान में कर्मों की किन प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होता है । इस अवधारणा को ‘कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्मग्रन्थ में पं० सुखलाल जी संघवी द्वारा दी गयी विभिन्न तालिकाओं के आधार पर स्पष्ट किया गया है । ____अष्टम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है । यह तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध एवं ब्राह्मण परम्परा के विविध ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है । इस अध्याय के अंत में जैनयोग और गुणस्थान सिद्धान्त का सम्बन्ध भी स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति संक्षेप में गुणस्थान सिद्धान्त का एक प्रामाणिक और शोध-परक विवरण प्रस्तुत करती है । ___ वस्तुत: इस कृति का प्रणयन अनेक किश्तों में हुआ है । गुणस्थानों के स्वरूप का विश्लेषण और उनका बौद्ध एवं ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन लेखक ने अपने शोध-प्रबन्ध के प्रणयन के अवसर पर आज से लगभग पचीस वर्षों पूर्व किया था, जिसे वहीं से लेकर यहाँ प्रस्तुत किया गया है । किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव, विकास एवं पूर्व बीजों की खोज लेखक के विगत चार-पाँच वर्षों के शोध प्रयत्नों का परिणाम है । इस शोध के कुछ अंश 'श्रमण' एवं अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं । उसी सामग्री के आधार पर इस कृति के प्रथम चार अध्यायों की विषय-वस्तु प्रस्तुत की गयी है । कर्म-सिद्धान्त एवं गुणस्थान सिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को प्रस्तुत कृति के लिये ही विशेषकर लिखा गया है। लेखक उन सभी विद्वानों विशेष रूप से पंडित सुखलाल जी संघवी का आभारी है जिनकी लेखन सामग्री का प्रस्तुत कृति में विशेष रूप से उपयोग किया गया है । गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव और विकास के सन्दर्भ में लेखक की जो अवधारणा है वह उसकी अपनी मौलिक खोज का परिणाम है । इसी प्रकार गीता आदि के सन्दर्भ में गुणस्थान सिद्धान्त का जो तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है, वह भी उसकी अपनी मौलिक सोच का परिणाम है। प्रस्तुत कृति के लेखन, सम्पादन एवं प्रूफ-संशोधन में डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय एवं संस्थान के अन्य सहयोगियों का जो सहयोग मिला है उसके लिये लेखक उनका आभार प्रकट करता है। साथ ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मानद सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन एवं संचालक मण्डल के अन्य सदस्यों के प्रति भी आभार प्रकट करता है जिन्होंने प्रस्तुत कृति को पार्श्वनाथ विद्यापीठ के माध्यम से प्रकाशित किया है। सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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