Book Title: Gita Darshan Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 311
________________ • स्वयं को बदलो गाने के लिए, जो मैं गाना चाहता हूं। अभी उसे गा नहीं पाया हूं। | के कहने के, उसका स्मरण आते ही वे लीन हो जाते थे, इसलिए और यह तो वक्त जाने का आ गया! वह गीत तो अनगाया रह गया | भी अंतराल हो जाता था। है, जो मेरे भीतर उबलता रहा है। उसी को गाने के लिए ये छः हजार अब हम सूत्र को लें। मैंने प्रयास किए थे। ये सब असफल गए हैं। मैं सफल नहीं हो पाया। तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है जो मैं कहना चाहता था, वह अभी भी अनकहा मेरे हृदय में दबा है। | और चर-अचर रूप भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय असल में जितनी ही ऊंचाई की प्रतीति और अनुभूति होगी, शब्द | अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति उतने ही नीचे पड़ जाएंगे। बाजार की भाषा ऐसे रह जाती है, जैसे | दूर में भी स्थित वही है। और वह विभागरहित एक रूप से आकाश कोई आकाश में उड़ गया दूर, और बाजार की भाषा बहुत नीचे रह | | के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक-पृथक के गई। अब उससे कोई संबंध नहीं जुड़ता। सदृश स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का और आकाश की कोई भाषा नहीं है। अभी तक तो नहीं है। कवि | धारण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा सब का उत्पन्न बड़ी कोशिश करते हैं; कभी-कभी कोई एक झलक ले आते हैं। | करने वाला है। और वह ज्योतियों की भी ज्योति एवं माया से अति संतों ने बड़ी कोशिश की है; और कभी-कभी कोई एक झलक | परे कहा जाता है। तथा वह बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं शब्दों में उतार दी है। लेकिन सब झलकें अधूरी हैं। क्योंकि सब | तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सब के हृदय में स्थित है। शब्द आदमी के हैं और अनुभूति परमात्मा की है। आदमी बहुत | तीन महत्वपूर्ण बातें। पहली बात, परमात्मा के संबंध में जब भी छोटा है और अनुभूति बहुत बड़ी है। इतना बड़ा हो जाता है अनुभव कुछ कहना हो, तो भाषा में जो भी विरोध में खड़ी हुई दो अतियां कि वाणी सार्थक नहीं रह जाती। हैं, एक्सट्रीम पोलेरिटीज हैं, उन दोनों को एक साथ जोड़ लेना इसलिए रामकृष्ण बीच-बीच में रुक जाते थे। लेकिन वे भक्त थे | जरूरी है। क्योंकि दोनों अतियां परमात्मा में समाविष्ट हैं। और जब उनकी भाषा भक्त की है। जो मैंने कहा, ऐसा उत्तर वे नहीं देते। वे | भी हम एक अति के साथ परमात्मा का तादात्म्य करते हैं, तभी हम कहते कि मां ने रोक लिया। मां सत्य नहीं बोलने देती। बात यही है।। भूल कर जाते हैं और अधूरा परमात्मा हो जाता है। और हमारा मां क्यों रोकेगी सत्य बोलने से? लेकिन रामकृष्ण तो सत्य और | परमात्मा के संबंध में जो वक्तव्य है, वह असत्य हो जाता है, वह मां को एक ही मानते हैं। उनके लिए मां सत्य है, सत्य मां है। वह पूरा नहीं होता। मां उनके लिए सत्य का साकार रूप है। तो वे कहते हैं, मां रोक मगर मनुष्य का मन ऐसा है कि वह एक अति को चुनना चाहता लेती है। वे कभी-कभी बीच में रुक जाते थे। बहत देर तक चप रह है। हम कहना चाहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है। तो दनिया के सारे जाते थे। फिर बात शुरू करते थे। वह कहीं और से शुरू होती थी। | धर्म, सिर्फ हिंदुओं को छोड़कर, कहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है, .जहां से उन्होंने शुरू की थी, जहां टूट गई थी, बीच में अंतराल आ | | क्रिएटर है। सिर्फ हिंदू अकेले हैं जमीन पर, जो कहते हैं, परमात्मा जाता था। इन अंतरालों का एक कारण और है। दोनों है, स्रष्टा भी और विनाशक भी, क्रिएटर और डिस्ट्रायर। रामकृष्ण अनेक बार बीच-बीच में समाधि में भी चले जाते थे। यह बहुत विचारणीय है और बहुत मूल्यवान है। क्योंकि और कभी भी कोई ईश्वर-स्मरण आ जाए, तो उनकी समाधि लग परमात्मा स्रष्टा है, यह तो समझ में आ जाता है। लेकिन वही जाती थी। कभी तो ऐसा होता कि रास्ते पर चले जा रहे हैं और विनाशक भी है, वही विध्वंसक भी है, यह समझ में नहीं आता। किसी ने किसी से जयरामजी कर ली, और वे खड़े हो गए, और | || आपके बेटे को जन्म दिया, तब तो आप परमात्मा को धन्यवाद आंख उनकी बंद हो गई। यह नाम सुनकर ही, राम का स्मरण दे देते हैं कि परमात्मा ने बेटे को जन्म दिया। और आपका बेटा मर सुनकर ही वे समाधि में चले गए। उनको सड़क पर ले जाते वक्त | | जाए, तो आपकी भी हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि परमात्मा ने भी ध्यान रखना पड़ता था। कोई मंदिर की घंटी बज रही है और धूप | | बेटे को मार डाला। क्योंकि यह सोचते ही कि परमात्मा ने बेटे को जल रही है, उनको सुगंध आ गई और घंटी की आवाज सुन ली, मार डाला, ऐसा लगता है, यह भी कैसा परमात्मा, जो मारता है! वे समाधि में चले गए। लेकिन ध्यान रहे, जो जन्म देता है, वही मारने वाला तत्व भी तो कभी-कभी बोलते वक्त भी, जैसे ही वे करीब आते थे सत्य होगा। चाहे हमें कितना ही अप्रीतिकर लगता हो। हमारी प्रीति और 1285

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