Book Title: Gita Darshan Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 334
________________ गीता दर्शन भाग-6 सुख-दुखरहित; पुरुष भीतर रह जाएगा, सुख - दुखरहित । पुरुष जब प्रकृति की तरफ दौड़ता है और आरोपित होता है, तो सुख-दुख पैदा होते हैं। और जो उस सुख-दुख में पड़ा है, वह द्वंद्व और अज्ञान में है। सुख-दुख के बाहर है आनंद । आनंद है पुरुष का स्वभाव; सुख-दुख है आरोपण प्रकृति पर । सुख-दुख है, पुरुष अपने को देख रहा है प्रकृति में ; प्रकृति का उपयोग कर रहा है दर्पण की तरह । अपनी ही छाया को देखकर सुखी या दुखी होता है। कभी-कभी आप भी अपने बाथरूम में अपने आईने में देखकर सुखी-दुखी होते हैं। कोई भी वहां नहीं होता । आईना ही होता है। अपनी ही शक्ल होती है। उसको ही देखकर कभी बड़े सुखी भी होते हैं, गुनगुनाने लगते हैं गीत । जिनके पास गले जैसी कोई चीज नहीं है, वे भी बाथरूम में गुनगुनाने से नहीं बच पाते। अगर कोई ऐसा आदमी मिल जाए, जो बाथरूम में नहीं गुनगुनाता, तो समझना कि योगी है। बाथरूम में तो लोग गुनगुनाते ही हैं। वे किसको देखकर गुनगुनाने लगते हैं? कौन-सी छवि उनको ऐसा आनंद देने लगती है? अपनी ही। अपने ही साथ मौज लेने लगते हैं। करीब-करीब प्रकृति के साथ हम जो भी खेल खेल रहे हैं, वह दर्पण के साथ खेला गया खेल है। फिर कभी दुखी होते हैं, कभी सुखी होते हैं, और वह सब हमारा ही खेल है, हमारा ही नाटक है। इसे थोड़ा बोध में लेना शुरू करें। घटनाएं प्रकृति में घटती हैं, भावनाएं भीतर घटती हैं। और भावनाओं के कारण हम परेशान हैं, घटनाओं के कारण नहीं | और बड़ा मजा यह है कि अगर हम कभी इस परेशानी से मुक्त भी होना चाहते हैं, तो हम घटनाएं छोड़कर भागते हैं, भावनाओं को नहीं छोड़ते। एक आदमी दुखी है घर में, गृहस्थी में । वह संन्यास ले लेता है, हिमालय चला जाता है। मगर उसे पता ही नहीं है कि वह दुखी इसलिए नहीं था कि वहां पत्नी है, बच्चा है, दुकान है। उसके कारण कोई दुखी नहीं था। वे तो घटनाएं हैं प्रकृति में। दुखी तो वह अपनी भावनाओं के कारण था । भावनाएं तो साथ चली जाएंगी हिमालय भी। और वहां भी वह उनका आरोपण कर लेगा । मैंने सुना है, एक आदमी शांति की तलाश में चला गया जंगल। बड़ा परेशान था कि बाजार में बड़ा शोरगुल है, बड़ा उपद्रव है। जंगल में जाकर वृक्ष के नीचे खड़ा ही हुआ था कि एक कौए ने बीट कर दी। सिर पर बीट गिरी। उसने कहा कि सब व्यर्थ हो गया। जंगल में भी शांति नहीं है! जंगल में भी कौए तो बीट कर ही रहे हैं। और कौआ कोई आपकी खोपड़ी देखकर बीट नहीं कर रहा है। न बाजार में कोई आपकी खोपड़ी देखकर कुछ कर रहा है। कहीं कोई आपकी फिक्र नहीं कर रहा है। घटनाएं घट रही हैं। आप भावनाग्रस्त होकर घटनाओं को पकड़ लेते हैं और जकड़ जाते हैं। और यह तो दूर कि असली घटनाएं पकड़ती हैं, लोग सिनेमा में बैठकर रोते रहते हैं। लोगों के रूमाल देखें सिनेमा के बाहर निकलकर, गीले हैं। आंसू पोंछ रहे हैं। वह तो सिनेमा में अंधेरा | रहता है, इससे बड़ी सुविधा है। सबकी नजर परदे पर रहती है, तो पड़ोस में कोई नहीं देखता । और लोग झांक लेते हैं कि कोई नहीं देख रहा है, अपना आंसू पोंछ लेते हैं। क्या हो रहा है परदे पर ? वहां तो कुछ भी नहीं हो रहा है। वहां तो केवल धूप-छाया का खेल है। और आप इतने परेशान हो रहे हैं ! आप धूप-छाया के खेल से भी परेशान हो रहे हैं ! अगर कोई एक | डाकू किसी का पीछा कर रहा है पहाड़ की कगार पर, तो आप तक की श्वास रुक जाती है। आप सम्हलकर बैठ जाते हैं। रीढ़ ऊंची हो जाती है। श्वास रुक जाती है। जैसे कोई आपका पीछा कर रहा है या आप किसी का पीछा कर रहे हैं। और आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं। आप सिर्फ कुर्सी पर बैठे हुए हैं। थोड़ी देर में प्रकाश हो जाएगा। सांख्य शास्त्र ने इसको उदाहरण की तरह लिया है कि जैसे कोई नर्तकी नाचती हो, तो उसके नाच में जो आप रस ले रहे हैं, वह आपके भीतर है। और आपके भीतर रस है, इसलिए नर्तकी नाच रही है, क्योंकि उसको लोभ है कि आपको रस होगा, तो आप कुछ देंगे। अगर आपके भीतर रस चला जाए, नर्तकी नाच बंद कर देगी और चली जाएगी। सांख्य शास्त्र कहता है कि जिस दिन पुरुष रस लेना बंद कर देता है, प्रकृति उसके लिए समाप्त हो जाती है। प्रकृति हट जाती है परदे से। उसकी कोई जरूरत न रही। सुख और दुख मेरे प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन हैं। मैंने उन्हें आरोपित किया है निष्कलुष प्रकृति पर । प्रकृति का कुछ भी दोष नहीं है । प्रकृति में तो घटनाएं घटती रहती हैं। वे घटती रहेंगी, मैं नहीं रहूंगा तब भी । और मैं नहीं था तब भी। वे घटती ही रहती हैं। उनसे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन मैं, यह जो पुरुष है भीतर... । इस पुरुष शब्द को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह भी | वैसा ही अदभुत शब्द है, जैसा प्रकृति । ये दोनों शब्द सांख्यों के हैं। 308

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