Book Title: Gita Darshan Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 398
________________ गीता दर्शन भाग-6 हूं, उसी क्षण परमात्मा उसके भीतर घटित हो जाता है। क्योंकि वह खाली हो गई जगह। जो अहंकार से भरा था भवन, अब खाली हो गया। अब वह बड़ा मेहमान उतर सकता है। अभी तो आप अपने से इतने भरे हैं कि आपके भीतर परमात्मा को प्रवेश की कोई रंध्र मात्र भी जगह नहीं है। तो वहां कोई आत्म-विश्वास काम नहीं देगा। इसका मतलब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्म-अविश्वास काम देगा। आप ध्यान रखना, आत्म-विश्वास काम नहीं देगा, इसका यह मतलब नहीं है कि आप अपने पर अविश्वास कर लें, तो काम देगा। नहीं, अविश्वास भी अहंकार है! आप तो केंद्र रहते ही हैं। कोई कहता है, मुझे अपने पर विश्वास है। कोई कहता है, मुझे अपने पर विश्वास नहीं है। लेकिन अपना तो दोनों में मौजूद रहता है। एक कहता है कि मैं कमजोर हूं, एक कहता है कि मैं ताकतवर हूं। लेकिन दोनों कहते हैं, मैं हूं। जो कमजोर है, वह ताकतवर हो सकता है कल । जो ताकतवर है, वह कल कमजोर हो सकता है। उनमें कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। वे एक ही चीज के दो रूप हैं। असहाय का अर्थ है कि मैं हूं ही नहीं । कमजोर भी नहीं हूं। ताकतवर होने का तो सवाल ही नहीं है। मैं कमजोर भी नहीं । क्योंकि कमजोरी भी ताकत का एक रूप है। मैं हूं ही नहीं। इस भांति जो अपने को मिटा लेता है, वह अध्यात्म में गति करता है। और वहां लगन का सवाल नहीं है। यहां संसार में लगन का सवाल है। यहां तो बिलकुल पागल लगन चाहिए। यहां तो बिलकुल विक्षिप्त की तरह दौड़ने की जिद्द चाहिए। यहां तो ऐसा दांव लगाने की बात चाहिए कि चाहे जिंदगी रहे कि जाए, मगर यह चीज मैं पाकर रहूंगा। जब कोई संसार में इस भांति दौड़ता है, तभी कुछ थोड़ी छीना-झपटी कर पाता है। अध्यात्म में लगन का कोई सवाल नहीं है। अध्यात्म में तो गति की जरूरत नहीं है, इसलिए लगन की जरूरत नहीं है। इसे हम ऐसा समझें कि संसार में कुछ पाना हो, तो दौड़ना पड़ता है और अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो खड़े हो जाना पड़ता है। संसार में कुछ पाना हो, तो छीनना-झपटना पड़ता है। अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो मुट्ठी खोल देनी पड़ती है; कुछ झपटना नहीं, कुछ पकड़ना नहीं। संसार में कुछ पाना हो, तो दूसरों से झगड़ना पड़ता है । अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो वहां कोई दूसरा है ही नहीं, जिससे झगड़ने का सवाल है। संसार में कुछ पाना हो, तो यहां लगन चाहिए। लगन का | मतलब यह है कि बहुत तरफ ध्यान न जाए। जैसे हम तांगे में घोड़े को जोत देते हैं, तो उसकी आंखों पर दोनों तरफ चमड़े की पट्टियां बांध देते हैं, ताकि उसको चारों तरफ दिखाई न पड़े, सिर्फ सामने दिखाई पड़े। क्योंकि चारों तरफ दिखाई पड़ेगा, तो घोड़े को चलने में बाधा आएगी। इधर घास दिख जाएगा, तो इधर जाना चाहेगा। उधर पास में कोई जवान घोड़ी दिख जाएगी, तो उस पर आकर्षित हो जाएगा। कहीं कोई सामने ताकतवर घोड़ा हिनहिना देगा, तो लड़ने को तैयार हो जाएगा। पच्चीस चीजें खड़ी हो जाएंगी। ध्यान बंटेगा । इसलिए घोड़े को हम करीब-करीब अंधा कर देते हैं। निन्यानबे प्रतिशत अंधा कर देते हैं। सिर्फ एक तरफ उसकी आंख खुली रहती है, सामने की तरफ । बस, उसको उतना ही रास्ता दिखाई पड़ता है। लगन का इतना ही मतलब होता है, घोड़े की तरह हो जाना। तांगे में जुते हैं! कुछ दिखाई नहीं पड़ता। बस, एक ही चीज दिखाई पड़ती है । उसको हम लगन कहते हैं। लगन का मतलब है कि अब कहीं चित्त नहीं जाता, बस एक चीज पर जाता है। इसलिए सब ताकत वहीं लग जाती है। राजनीतिज्ञ है, वह लगन का आदमी होता है। उसे सिर्फ दिल्ली दिखाई पड़ती है, कुछ नहीं दिखाई पड़ता । उसे पार्लियामेंट का भवन भर दिखाई पड़ता है और उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता । बस, उसे दिल्ली...। दिल्ली उसके मन में रहती है। वह तांगे में जुते घोड़े की | तरह है। उसको संसार में कुछ दिखाई नहीं पड़ता । बस, दिल्ली ! और वह जैसे-जैसे करीब दिल्ली के पहुंचने लगता है, वैसे-वैसे उसकी आंखें और संकीर्ण होने लगती हैं। फिर कैबिनेट दिखाई पड़ता है उसको, मंत्रिमंडल दिखाई पड़ता है। मंत्रिमंडल में पहुंच जाए, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी भर दिखाई पड़ती है, फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता । यह क्रमशः अंधे हो जाने की तरकीब है। ऐसे वह क्रमशः अंधा होता जाता है। लेकिन जितना वह अंधा होता जाता है, उतनी ही शक्ति संकीर्ण दिशा में प्रवाहित होने लगती है। वह उतना ही सफल हो जाता है। दिल्ली की तरफ जाने के लिए आंख पर अंधापन होना जरूरी है, तो ही सफलता मिल सकती है। 372 एक आदमी धन की खोज में है। वह सब छोड़ देता है फिक्र। न उसे प्रेम से मतलब न पत्नी से, न बच्चे से, न धर्म से । उसे किसी चीज से मतलब नहीं है, उसे धन से मतलब है । उसे हर चीज में धन दिखाई पड़ता है । उठते, सोते, जागते उसके सारे सपने धन से भरे होते हैं, तब वह सफल हो पाता है। वह लगन का आदमी है।

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