Book Title: Gita Darshan Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 342
________________ 0 गीता दर्शन भाग-60 गीता के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। शंकर एक व्याख्या लिखते तिलक ने पांचवीं की, गांधी ने की, विनोबा ने की; हैं। वह व्याख्या भी अन्यायपूर्ण है, क्योंकि शंकर ज्ञान को श्रेष्ठतम | कोई एक हजार व्याख्याकार गीता के हुए जाने-माने, मानते हैं। वह उनकी मान्यता है। उस मान्यता में कोई भूल नहीं है। गैर जाने-माने तो और भी बहुत हैं। मुझसे पूछा है कि ज्ञान श्रेष्ठ है। किसी और से श्रेष्ठ नहीं है तुलनात्मक अर्थों में, | आप जो व्याख्या कर रहे हैं, इसमें और उनकी व्याख्या अपने आप में श्रेष्ठ है। दूसरे से कोई संबंध नहीं है। शंकर की में क्या फर्क है? मान्यता है कि ज्ञान श्रेष्ठ है। यह मान्यता बिलकुल ठीक है और सही है। फिर वे इसी मान्यता को पूरी गीता पर थोप देते हैं। तो कुछ तो वचन ठीक हैं, जिन में कृष्ण ज्ञान को श्रेष्ठ कहते हैं। द समें बहुत फर्क है। मेरा कोई संप्रदाय नहीं है। मुझे गीता वहां तो शंकर को कोई तकलीफ नहीं है। लेकिन जहां कृष्ण भक्ति । २ पर कुछ भी आरोपित नहीं करना है। न मुझे आरोपित को श्रेष्ठ कहते हैं और कर्म को श्रेष्ठ कहते हैं, वहां शंकर को करना है ज्ञान, न मुझे आरोपित करनी है भक्ति, न मुझे अड़चन आती है। पर शंकर बहुत कुशल तार्किक हैं। वे रास्ता | आरोपित करना है कर्म। मुझे पूरी गीता पर कोई चीज आरोपित नहीं निकाल लेते हैं। वे शब्दों में से भूलभुलैया खड़ी कर लेते हैं। वे करनी है। पूरी गीता पर जो भी कुछ आरोपित करने की कोशिश शब्दों के नए अर्थ कर लेते हैं। वे शब्दों की ऐसी व्याख्या जमा देते करेगा, वह कृष्ण के साथ अन्याय कर रहा है। हैं कि परी गीता शंकर की व्याख्या में ज्ञान की गीता हो जाती है। ___ मुझे तो इंच-इंच गीता जो कहती है, उसको ही प्रकट कर देना वह अन्याय है। | है, इसकी बिना फिक्र किए कि आगे-पीछे उसके विपरीत, उसके रामानुज भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं। बिलकुल ठीक है। कुछ | | विरोध में भी कुछ कहा गया है। मुझे कोई सिस्टम, कोई व्यवस्था गलती नहीं है। लेकिन वे भक्ति के सूत्रों के आधार पर सारी गीता | नहीं बिठानी है। लेकिन कनफ्यूजिंग होगी; मेरी बात में बड़ा भ्रम ... पर भक्ति को आरोपित कर देते हैं। वह अन्याय है। | पैदा होगा। वह वैसा ही भ्रम होगा, जैसा कृष्ण की बात में है। तिलक कर्म को श्रेष्ठ मानते हैं, तो पूरी गीता पर कर्म को | | क्योंकि कभी मैं कहूंगा, ज्ञान श्रेष्ठ है। जब गीता ज्ञान को श्रेष्ठ आरोपित कर देते हैं। वह अन्याय है। अपने आप में बात बिलकुल कहेगी, तो मैं भी कहूंगा। और जब गीता भक्ति को श्रेष्ठ कहेगी, ठीक है। | तो मैं भी कहूंगा। मैं गीता के साथ बहूंगा। मैं अपने साथ गीता को कर्म श्रेष्ठ है, किसी और से नहीं, श्रेष्ठ है इसलिए कि उससे भी नहीं बहाऊंगा। परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। भक्ति श्रेष्ठ है, किसी और से मेरी कोई धारणा नहीं है, जो मुझे गीता पर आरोपित करनी है। नहीं, श्रेष्ठ है इसलिए कि वह भी परमात्मा का द्वार है। ज्ञान श्रेष्ठ अगर मेरी कोई धारणा हो, जो गीता पर मुझे आरोपित करनी है, तो है, किसी और से नहीं; वह भी वहीं पहुंचा देता है, जहां भक्ति और | इसको मैं व्यभिचार मानता हूं। यह उचित नहीं है। कर्म पहुंचाते हैं। और इसीलिए मुझे सुविधा है कि मैं गीता पर बोलूं, तो मुझे __ और जो व्यक्ति जिस मार्ग से चलता है, स्वभावतः उसे वह श्रेष्ठ | तकलीफ नहीं है। मैं कुरान पर बोलूं, तो मुझे तकलीफ नहीं है। मैं लगेगा। क्योंकि उससे वह चलता है, उससे वह पाता है, उससे उसे | बाइबिल पर बोलूं, तो मुझे तकलीफ नहीं है। क्योंकि मुझे किसी अनुभव होता है। और दूसरे मार्ग से जो चलता है, उसका उसे कोई चीज पर कुछ आरोपित नहीं करना है। भी पता नहीं है। ___मैं मानता है. बाइबिल अपने में इतना अदभत फल है कि मैं कृष्ण ने सभी मार्गों की बात कही है। | उसको आपके सामने खोल सकू तो काफी; उसकी सुगंध आपको मिल जाए, बहुत है। उस पर कुछ थोपने की जरूरत नहीं है। इसलिए जो लोग मेरे बहुत-से वक्तव्य पढ़ते हैं, उनको लगता एक मित्र ने मुझसे यह भी पूछा है कि शंकर ने एक है, उनमें मैं बड़ा कंट्राडिक्शन है। लगेगा, विरोध लगेगा। कभी मैं व्याख्या की, रामानुज ने दूसरी व्याख्या की, वल्लभ | | यह कहा हूं, और कभी मैं यह कहा हूं, और कभी मैं यह कहा हूं। ने तीसरी व्याख्या की, निम्बार्क ने चौथी व्याख्या की, | निश्चित ही, कभी मैं गुलाब की तारीफ कर रहा था। और कभी मैं 316

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