Book Title: Gita Darshan Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 380
________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 बात खयाल में आ जाए कि जो भी कर रहा है, वह भगवान कर | | बुराई ही होगी। वह जो आप भीतर बैठे हैं, वह बुरा ही कर सकता रहा है, तो मेरा कर्तापन समाप्त हो गया। | है। और जैसे ही आप विदा हो गए, मूल आधार खो गया बुराई - सारी साधना इतनी ही है कि मेरा अहंकार समाप्त हो जाए। फिर | का। फिर आपसे जो भी होगा, वह भला है; आपको भला करना अच्छा भी वही कर रहा है, बुरा भी वही कर रहा है। फिर अच्छे-बुरे नहीं पड़ेगा। का कोई सवाल ही नहीं रहा। वही कर रहा है, दोनों वही कर रहा लेकिन इसको, इस विचार को पूरी तरह से अपने में डुबा लेना है। दुख वही दे रहा है, सुख वही दे रहा है। जन्म उसका, मृत्यु और इस विचार में पूरी तरह से डूब जाना बड़ा कठिन है। क्योंकि उसकी। बंधन उसका, मुक्ति उसकी। फिर मेरा कोई सवाल न रहा। अक्सर हम इसको बड़ी होशियारी से काम में लाते हैं। जब तक मुझे बीच में आने की कोई जरूरत न रही। फिर साधना की कोई भी | हमसे कुछ बन सकता है, तब तक तो हम सोचते हैं, हम कर रहे हैं। जरूरत नहीं है। क्योंकि साधना हो गई। शुरू हो गई। जब हमसे कुछ नहीं बन सकता, हम असफल होते हैं, तब अपनी यह विचार ही परम साधना बन जाएगा। यह खयाल ही इस असफलता छिपाने को हम कहते हैं कि परमात्मा कर रहा है। जीवन से सारे रोग को काट डालेगा। क्योंकि सारा रोग ही अहंकार, हम बहुत धोखेबाज हैं। और हम परमात्मा के साथ भी धोखा . इस बात में है कि मैं कर रहा हूं। यह समर्पण का परम सूत्र है। करने में जरा भी कृपणता नहीं करते। लोग इसे समझ लेते हैं, यह भाग्यवाद है। यह भाग्यवाद नहीं है। __ जब भी आप सफल होते हैं, तब तो आप समझते हैं, आप ही भारत के इस विचार को बहुत कठिनाई से कुछ थोड़े लोग ही समझ कर रहे हैं। और जब आप असफल होते हैं, तब आप कहते हैं, पाए हैं। यह कोई वाद नहीं है। यह एक प्रक्रिया है साधना की। यह | | भाग्य है; उसकी बिना इच्छा के तो पत्ता भी नहीं हिलता। साधना का एक सूत्र है। यह कोई सिद्धांत नहीं है कि भगवान सब | | नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने पत्र में लिखा है अपनी पत्नी को। कर रहा है। यह एक विधान, एक प्रक्रिया, एक विधि है। | बहुत कीमती बात लिखी है। उसने लिखा है कि मैं भाग्यवाद का ऐसा अगर कोई अपने को स्वीकार कर ले कि जो भी कर रहा | भरोसा नहीं करता हूं। मैं पुरुषार्थी हूं। लेकिन भाग्यवाद को बिना है, परमात्मा कर रहा है, तो वह मिट जाता है, उसी क्षण शून्य हो | | माने भी नहीं चलता। क्योंकि अगर भाग्यवाद को न मानो, तो अपने जाता है। और जैसे ही आप शून्य होते हैं, बुरा होना बंद हो जाएगा। | दुश्मन की सफलता को फिर कैसे समझाओ! उसकी क्या व्याख्या आपको बुरा बंद करना नहीं पड़ेगा। हो। फिर मन को बड़ी चोट बनी रहती है। ___ यह जरा जटिल है। बुरा होना बंद हो जाएगा। दुख मिलना ___ अपनी सफलता पुरुषार्थ से समझा लेते हैं। अपने दुश्मन की समाप्त हो जाएगा, क्योंकि बुरा होता है सिर्फ अहंकार के दबाव के सफलता भाग्य से, कि भाग्य की बात है, इसलिए जीत गया, कारण। और दुख मिलना बंद हो जाएगा, क्योंकि दुख मिलता है | अन्यथा जीत कैसे सकता था! पड़ोसियों को जो सफलता मिलती केवल अहंकार को। जिसका अहंकार का घाव मिट गया, उस पर | | है, वह परमात्मा की वजह से मिल रही है। और आपको जो चोट नहीं पड़ती फिर। फिर उसे कोई दुख नहीं दे सकता। | सफलता मिलती है, वह आपकी वजह से मिल रही है। नहीं तो मन इसका मतलब हुआ कि अगर कोई स्वीकार कर ले कि परमात्मा में बड़ी तकलीफ होगी। सब कुछ कर रहा है, फिर कुछ करने की जरूरत न रही। और बुरा __ अपनी हार स्वीकार करने का मन नहीं है। अपनी सफलता अपने आप बंद होता चला जाएगा, और दुख अपने आप शून्य हो | | स्वीकार करने का जरूर मन है। हारे हुए मन से जो इस तरह के जाएंगे। जिस मात्रा में यह विचार गहरा होगा, उसी मात्रा में बुराई | | सिद्धांत को स्वीकार करता है कि उसकी आज्ञा के बिना पत्ता भी विसर्जित हो जाएगी। क्योंकि बुराई के लिए आपका होना जरूरी नहीं हिलता, वह आदमी कुछ भी नहीं पा सकेगा। उसके लिए है। आपके बिना बुराई नहीं हो सकती। सिद्धांत व्यर्थ है। भलाई आपके बिना भी हो सकती है। भलाई के लिए आपके यह किसी हारे हुए मन की बात नहीं है। यह तो एक साधना होने की कोई भी जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि भलाई के लिए का सूत्र है। यह तो जीवन को देखने का एक ढंग है, जहां से कर्ता आपका होना बाधा है। आप जब तक हैं, भलाई हो ही नहीं सकती। | को हटा दिया जाता है। और सारा कर्तृत्व परमात्मा पर छोड़ दिया चाहे भलाई का ऊपरी ढंग दिखाई भी पड़ता हो भले जैसा, भीतर | जाता है। 354

Loading...

Page Navigation
1 ... 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432