Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
वैदिक साहित्य में यति और व्रात्य
ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त यतियों का भी उल्लेख बहुतायत से आया है । ये यति भी ब्राह्मण परम्परा के न होकर श्रमण परम्परा के ही साधु सिद्ध होते हैं । जिनके लिये यह संज्ञा समस्त जैन साहित्य में उपयुक्त होते हुए भी आज तक भी प्रचलित है । यद्यपि आदि में ऋषियों, मुनियों और यतिओं के बीच मेल पाया जाता है और वे समानरूप से पूज्य माने जाते थे। किन्तु कुछ ही काल के पश्चात् यतियों के प्रति वैदिक परम्परा में महान रोष उत्पन्न होने के प्रमाण हमें ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलते हैं । जहाँ इन्द्र द्वारा यतियों को शालावृक्षों शृगालों व कुत्तों द्वारा नुचवाए जानेका उल्लेख मिलता है । तैतरीय संहिता २, ४, ९, २, ६, २, ७, ५, ताण्डव ब्राह्मण १४, २, २८, १८, १९ किन्तु इन्द्र के इस कार्यको देवोने उचित नहीं समझा और उन्होंने इसके लिये इन्द्रका बहिष्कार किया (ऐतरेय ब्राह्मण ७, २८ ताण्डव ब्राह्मण के टीकाकारोंने यतियों का अर्थ किया है वेदविरुद्धनियमोंपेत, कर्मविरोंधिजन, ज्योतिष्टोमादि अकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमान आदि, इन विशेषणों से उनकी श्रमण परम्परा स्पष्ट प्रमाणित हो जाती है । भगवत् गीता में ऋषियों मुनियों और यतियों का स्वरुप भी बतलाया है। और उन्हें समान रूप से योग साधना में प्रवृत्तमाना है । यहाँ मुनिको इन्द्रिय और मनका संयम करनेवाला, इच्छा, भय और क्रोध रहित, मोक्ष परायण व सदा मुक्त के समान माना है भ. गी० ५, २८ । अथर्ववेद के १५ वें अध्यायमें वान्यों का वर्णन आया । ये व्रात्य वैदिक विधि से अदिक्षित ब संस्कार हीन थे वे अदुरुक्त वाक्य को दुरुक्त रीति से (वैदिक व संस्कृत नहीं, किन्तु अपने समय की प्राकृत भाषा) में बोलते थे । वे ज्याहृद (प्रत्यंचा रहित धनुष्य) धारण करते थे । मनुष्मृति अ० १० में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रिय जातियों को व्रात्यों में गिणाया है । इन सब उल्लेखों पर सूक्ष्मता पूर्वक विचार करने से इसमें सन्देह नहीं रहता कि ये ब्रात्य भी श्रमण परम्परा के साधु व गृहस्थ थे । जो वेध विरोधि होने से वैदिक अनुयाइयों के कोप भाजन हुए है । जैन धर्म के मुख्य पांच अहिंसादि नियमों को व्रत कहा है । उन्हें ग्रहण करने वाले श्रावक देश विरती या अणुव्रती और मुनि महाव्रतीकहलाते हैं । जो विधिवत व्रत ग्रहण नहीं करते तथापि श्रद्धा रखते हैं वे अविरत सम्यगदृष्टि कहे जाते हैं । इसीप्रकार के व्रत धारी व्रात्य कहे गये प्रतीत होते हैं क्योंकि वे हिंसात्मक यज्ञ विधियों के नियम से त्यागी होते हैं । इसीलिए उपनिषदों में कही कही उनकी बडी प्रशंसा की गई है। जैसे प्रश्नोपनिषद में कहा गया है व्रात्यस्वं प्राणैक ऋषिस्ता विश्वस्य सप्ततिः (२, ११) शांकर भाष्य में व्रात्यों का अर्थ स्वभावतः एक शुद्ध इत्याभिप्राय: किया गया है इस प्रकार श्रमण साधनाओं की परम्परा हमें नाना प्रकार के स्पष्ट व अस्पष्ट उल्लेखों द्वारा ऋग्वेद आदि समस्त वैदिक साहित्य में दृष्टिगोचर होती है । इन सब बातों से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण संकृति भारत की नहीं विश्वकी एक मौलिक संस्कृति है। इस संस्कृति के बीज वर्तमान इतिहास की परिधि से बहुत परे प्राचीनतम भारत की मूल संस्कृति में है । सिन्धु उपत्यका की खुदाइ से प्राप्त होनेवाली सामग्री से इस बात पर प्रकाश पडता है कि आर्यो के भारत आगमन के पूर्व यहाँ एक विशिष्ट सभ्यता प्रचलित थी । इससे यह अनुमान मिथ्या सिद्ध हो जाता है कि भारत में आदि सभ्यता का दर्शन वेद काल से हि होता है। आर्यो के आने के पहले प्राग्वैदिक संस्कृति के ज्ञान के लिये भी विद्वानों के पास पर्याप्त साधन उपलब्ध होगये हैं । उनसे यह सिद्ध होता है कि उस समय में सर्व उपरि भारत में एक प्राचीन सभ्य दार्शनिक और विशेषतया नैतिक सदाचार व कठिन तपश्चर्या वाला श्रमणधर्म-जैन धम भी विद्यमान था । तात्पर्य यह है कि जैन संस्कृति भारत की प्राचीन और मौलिक संस्कृति है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org