Book Title: Gandhar Sarddhashatakam
Author(s): Jinduttsuri
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भाषा में रचना करने में अपना अपमान समझते थे । फल यह हुआ कि प्रान्तीय साहित्य उनसे सर्वथा अछूता रहा । वस्तुतः किसी भी सिद्धान्तादि के प्रचार के लिये जितनी प्रान्तीय भाषा उपयुक्त हो सकती है उतनी विद्वभोग्य भाषा नहीं । प्रान्तीयभाषा में प्रचारित सिद्धान्त ही सर्वग्राही हो सकते हैं जैसा कि श्रमण भगवान् महावीरने किया था । जैन साहित्यप्रणेताओं ने स्वसाहित्य - निर्माण में ही व्यस्त न रहें; पर अन्य मतावलम्बियों के साहित्य पर भी अपनी विद्वत्ता पूर्ण गंभीर आलोचनात्मक कृतिओ निर्माण कर उसे लोकभोग्य करने का आदरणीय प्रयत्न किया है जो उनकी उदारता का परिचायक है । कई ग्रन्थ ऐसे जटिल और कठिन हैं जिनकी वृत्तियें, यदि जैनाचार्योंने निर्माण न की होतीं तो शायद ही आज कोई समझ पाता । जैसे कि कादम्बरी वृत्ति आदि । जैन साहित्य अभी बहुत कुछ अप्रकाशित अवस्था में पड़ा हुआ है जिसका प्रकाशन भारतीयसंस्कृति की सुरक्षा के लिये अत्यन्त वान्छनीय है, इससे भारतीय गौरव में महान वृद्धि होगी, अत्यल्प प्रकाशित जैन साहित्य पर से विद्वज्जन इस अभिप्राय पर पहुंचे है कि भारतीय में से यदि जैन संस्कृत अपभ्रंश प्राकृतादि भाषा का साहित्य अलग कर दिया जाय तो न जाणे भारतीय साहित्य की क्या गति होगी ? योरोपीय भारतीयादि विद्वान् पुरातन हस्तलिखित पुस्तकशोध विषयक रिपोर्टस में जैन साहित्य पर मुग्ध है इतना ही नहीं परंतु जैन साहित्य के किसी एक विषय पर महान् निबंध लिख यूरोपीय विश्वविद्यालयों से Di Litt. P. H. D. आदि विद्वत्ता सूचक उपाधि प्राप्त की है जिनमें से ये प्रमुख है, डॉ ओटो स्टाइन, P. H. D. प्रो. हेलमारुथ P. H. D. ग्लाजेनप्प आदि । भारतीय साहित्य की बहुत ऐसी उलझनें है जो बिना जैन साहित्य अध्ययन के कदापि नहीं सुलझायी जा सकती जैसे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir

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