Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ सम्पादकीय अज्ञान और बाहरी उपद्रवों की दुहरी समस्या को सुलझाने में भी वह सफल रही। उस प्रतिभा का नाम था- "श्री जिन तारणतरणस्वामी"। जिन्हें संक्षेप में 'तारणस्वामी' भी कहा जाता है । श्री तारणस्वामी ने तत्कालीन परिस्थितियों में प्रात्मोन्नति और धर्म के उत्थान के लिए जिनवाणी की आराधना के द्वारा तत्त्वज्ञान के अभ्यास पर विशेष बल दिया तथा जिनवारणी की उपासना को ही मुख्य रखकर शेष क्रिया-काण्ड को गौरण किया। यह एक बहुत बड़ा क्रान्तिकारी कदम था। इससे जहां एक ओर आन्तरिक प्रज्ञान हटा, वहीं दूसरी ओर क्रिया-काण्ड का आडम्बर भी कम हुआ तथा ध्वस्त अवशेषों पर प्रासू बहानेवाले भावुक भक्तों के हृदय को जीतने के लिए उन्होंने उनके आँसू पोंछते हुए उनसे कहा कि सच्चा धर्मायतन तो तुम्हारा प्रात्मा स्वयं ही है, जिसे कोई कभी ध्वस्त नहीं कर सकता, तुम तो अपने चैतन्यस्वरूप भगवान प्रात्मा की शरण में जाओ, वही निश्चय से सच्चा शरणभूत है, वह साक्षात् कारणपरमात्मा है, उसी के पालम्बन से अबतक हुए सब परंहत व सिद्धस्वरूप कार्यपरमात्मा बने हैं। कहा भी है :"चिदानन्द चितवनं, येयनं प्रानंदं सहाष आनंदं । कम्ममल पयदि खिपनं, ममल सहावेन अन्योय संजुतं । - ज्ञान और प्रानंदमयी आत्मा का मनन करना चाहिये, क्योंकि इसी से ज्ञानानन्द की या स्वाभाविक आत्मसुख की प्राप्ति होती है और इस आनन्द सहित शुद्ध स्वभाव के अनुभव से ही कर्मकलंक की प्रकृतियाँ भी क्षय को प्राप्त हो जाती हैं ।"" तथा : मों नमः विन्दते जोगी, सिद्धं भवत शास्वतम् । पण्डितो सोऽपि जानन्ते, देवपूजा विधीयते ॥ __ 'प्रोम्' शब्द में पंचपरमेष्ठी गभित हैं। जो इन पंचपरमेष्ठी को अपनी प्रात्मा में ही अनुभव करते हैं, वे ही शाश्वत सिद्ध पद को पाते हैं; क्योंकि प्रोम् ही ब्रह्म है, यही सच्चा धर्मायतन है, यही सच्ची देवपूजा है; अतः इसी की आराधना करो, इसको कौन ध्वस्त कर सकता है ?? 'कमल बत्तीसी श्लोक १३ २ पण्डित पूजा, श्लोक ३

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 104