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चढ़ाव उतारों, संघर्षों, यन्त्रणाओं से स्वयं गुजरती हुई भी, कहीं उनसे अस्पृष्ट रहकर, उत्तीर्ण होकर, अपने साक्षी और द्रष्टाभाव में आवेचल रह सकती हो, जो देह- मानसिक स्तर की अज्ञानी भूमिका पर गलत या विसंवादी हो गयी जीवन-व्यवस्था में, अपने भीतर के इस अखण्ड चैतन्य में से पहल करके, संवादिता ला सकती हो, न्हयी और कल्याणी सृष्टि रच सकती हो।
जैन पुराकथा में ऐसी उपोद्घाती या पहल करनेवाली व्यक्तिमत्ताओं को शलाका-पुरुष कहा गया है। ऐसे स्त्री-पुरुष, जो पहले स्वयं स्वभाव को उपलब्ध होकर, लोक में अपने को एक अचूक मानदण्ड अथवा शलाका के रूप में उपस्थित करें, कि उनके संयुक्त (इण्टीग्रेटेड) व्यक्तित्व, विचार, व्यवहार, आचार से ही लोक में आपोआप एक असर्गामी अकान्ति रूपान्तर घटित होता चला जाय ।
ऐसे ही शलाकाधर स्त्री-पुरुष कमोवेश इन सारी कहानियों के पात्र हैं। ऐसे लोग अपने स्वभाव में ही अतिक्रान्त होने के कारण, वर्तमान में जड़, अवरुद्ध और विकृत हो गयी जीवन-व्यवस्था में क्रान्ति लाने को विवश होते हैं, ताकि यह दुनिया उनकी महतू जीवन लीला के योग्य हो सके। इसी कारण अनिवार्यतः वे विप्लवी, प्रतिवादी, विद्रोही होते हैं। वे प्रथमतः तमाम जड़, रूढ़ियों और गलत व्यवस्थाओं के भंजक और ध्वंसक होते हैं। यानी प्राथमिक भूमिका में वे नाराज नौजवान ही हो सकते हैं। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, क्रीस्त, मोहम्मद, कबीर, विवेकानन्द और श्री अरबिन्द तक के सारे ही ज्योतिर्धर नाराज नौजवान ही थे। लेकिन प्रथमतः ये अपने में सम्यक् और सम्बुद्ध सम्यक् ज्ञानी थे। इसी कारण वे जड़त्व से प्रसूत आततायी और आसुरी शक्तियों को महज गाली देने और उन पर शाब्दिक प्रहार करने में अपनी शक्ति का अपव्यय करना 'एफोर्ड' ( गवारा नहीं कर सकते थे। वे बकवास नहीं करते थे. एक ही बुनियादी प्रहार से वे असत्य और असुर का काम तमाम कर देते थे ।
'महाभारत' में जगह-जगह श्रीकृष्ण की चुप्पी द्रष्टव्य है। गौर करें
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