Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ आखिर लाये कौन ? यही तो आज प्रश्नों का एक प्रश्न है। पहल कौन करे और कैसे करे : ___ इसी प्रश्न का कोई सम्भाव्य उत्तर खोजने और देने का एक अन्वेषक प्रयास हैं मेरी ये प्रस्तुत पुराकथाएँ, मेरा 'मुक्तिदूत', मेरा कविताएँ, मेरा समूचा कृतित्व। और सम्प्रति महावीर पर लिखे जा रहे मेरे उपन्यास में भी, इसी प्रश्न के एक मूर्तिमान् उत्तर के रूप में ‘अनुत्तरयोगी तीर्थंकर महावीर' अवतरित हो रहे हैं। उपनिषद् के ऋषि ने कहा था : 'आत्मानं विद्धि' । डेल्फी के यूनानी देवालय के द्वार-शीर्ष पर खुदा है : 'नो दाइसेल्फ' | बुद्ध ने कहा था : 'अप्प दीपो भव' । जिनेश्वरों की अनादिकालीन वाणी कहती है : 'पूर्ण आत्मज्ञान ही केवलज्ञान है : वही सर्वज्ञता है : वही अनन्त ऐश्वर्य-भोग है, वहीं मोक्ष है !' आदि काल से आज तक के सभी पारद्रष्टाओं ने, जीवन के चरम लक्ष्य को इसी रूप में परिभाषित किया है। मानो यह कोई बौद्धिक सिद्धान्त-निर्णय नहीं, अनुभवगम्य सत्य-साक्षात्कार की ज्वलन्त वाणी है। देश-कालातीत रूप से यह एक स्वयंसिद्ध हकीकत है। __अपने को पूरा जानी, तो सबको सही और पूरा जान सकते हो। स्व और पर का सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान होने पर ही, स्व और पर के बीच सही सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। इस विज्ञान तक पहुंचे बिना, व्यक्ति-व्याक्त, वस्तु-वस्तु और व्यक्ति तथा वस्तु के बीच सही संगति स्थापित नहीं हो सकती। व्यक्तियों, समाजों, वर्गों, जातियों, राष्ट्रों के बीच सम्यक् सम्बन्ध की स्थापना, इसी स्व-पर के सम्यक् ज्ञान के आधार पर हो सकती है। किसी भी सच्ची नैतिकता और चारित्रिकता का आधार भी वही हो सकता है। किसी भी मांगलिक समाज, राज्य, अर्थतन्त्र, प्रजातन्त्र और सर्वोदयी व्यवस्था की सही बुनियाद यही हो सकती है। इस उपलब्धि को स्थगित करके, इससे कमतर किसी भी ज्ञान-विज्ञान द्वारा निर्धारित व्यवस्था और चारित्रिकता, छद्म, पाखण्डी और शोषक ही हो सकती है। 18

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