Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ जाकर भी, वह आज भी मनुष्य को अपनी विरोधी आसुरी ताकतों के खिलाफ लड़ने की अजस्र प्रेरणा और सामर्थ्य प्रदान कर रहा है। वेद, उपनिषद्, वाल्मीकि, वेदव्यास, जिनसेन, अश्वघोष, होमर, वर्जिल, दान्ते, कालिदास, तुलसीदास, कबीर और तमाम मध्यकालीन सन्तों का साहित्य आज भी इसीलिए जनहृदय में जीवन्त और संचरित हैं, क्योंकि वह मात्र समकालीन वस्तुस्थिति के ज्वलन्त चित्रण पर ही समाप्त नहीं, वह परिवर्तमान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप हर युग में मनुष्य को अन्धकार, मृत्यु, अत्याचार और पीड़न के विरुद्ध जेहाद करके, स्वाधीन मुक्त जीवन जीने और तदनुरूप विश्व-रचना करने की शक्ति प्रदान करता है। आज प्रश्न यह हैं कि सही प्रजातन्त्र, उत्तरदायी शासन, कल्याणी व्यवस्था कौंन लाये ? क्या कोई उसे थाली में परोसकर हमारे सामने रख देगा ? क्या उसे लाने का दायित्व औरों पर डालकर केवल भोक्ता हो रहने की छुट्टी हमें है ? हर बुराई का दायित्व दूसरों पर टालकर उन्हें गरियाना और मात्र उनम शाब्दिक मंजन करने में सरल रहना ही क्या सच्चा विद्रोह और क्रान्ति कही जा सकती है ? जो राज्य और अर्थ-सत्ता पर बैठे हैं, वे क्या आसमान से उतरे हैं ? वे भी पूलतः हमारी ही तरह कमजोर और सीमित इनसान हैं। उनकी कमजोरियों और तज्जन्य बलात्कारों को उलटने के लिए हमें खुद पहले जनसे ज्यादा ताकतवर हो जाना पड़ेगा। उनके जैसी ही अपनी प्राणिक दुर्बलताओं और सीमाओं से ऊपर उठकर आत्मशक्ति का स्वामित्व प्राप्त करना होगा। एक सच्चा प्रजातन्त्र और सही व्यवस्था लाने के लिए, पहले हमें अपने भीतर अपना ही एक आत्मतन्त्र स्थापित करना होगा। केवल सतही व्यवस्था के परिवर्तन से कोई अभीष्ट और स्थायी परिणाम नहीं आ सकता। सारी दुनिया को अपने अनुकूल बदल देने के लिए, पहले हमें खुद अपने को बदलना होगा। एक सही व्यक्ति, इकाई ही सही व्यवस्था ला सकती है। यदि स्थापित और विस्थापक, दोनों वही पक्ष अपनी मूल प्रकृति में एक से कमजोर और गलत हैं, तो सही और आदर्श व्यवस्था

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