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स्व को सही जानना यानी व्यक्ति और वस्तु के मौलिक स्व-भाव को, स्व-रूप को जानना है और स्व-भाव तथा स्व-रूप को जानकर, उसी में जीना सच्चा, सार्थक और सुख-शान्तिपूर्ण जीना हैं। सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि की आर विनाएँ इसी बात बीयर को उपलब्ध करने की आनेवार्य आवश्यकता में से निपजी हैं। स्वतन्त्र
और शोषण-मुक्त जीवन और व्यवस्था की शर्त है. यह स्व-भाव में बीवन. धारण। यह स्वभाव में जोवन-धारण व्यक्ति से आरम्भ होकर ही विश्वव्यापी हो सकता है। जो व्यक्ति स्वयं स्वभाव और स्वरूप-ज्ञान में नहीं जीते, वे सारी दुनिया में सही जीवन-व्यवस्था लाने का दावा कैसे कर सकते हैं ? ऐसा दावा परिणाम में दाम्भिक, स्वार्थी और विकृत ही सिद्ध हो सकता है। व्यक्ति पहले स्वयं हो स्वभाव में अवस्थित हो, तभी यह सारे विश्व में अभीष्ट रूपान्तर या उन्क्रान्ति उपस्थित कर सकता है। यानी व्यक्ति की आत्मगत और स्वचेतनागत पहल ही सबसे बुनियादी और महत्त्वपूर्ण चीज है। ___अटूट आत्मनिष्ठा और संचेतन, स्वैच्छिक आत्मदान ही इस पहल का तन्त्र हो सकता है। प्रतिपक्षी के अहंकार, राग-द्वेष, शोषण, अत्याचार के प्रत्युत्तर में हमारे भीतर से प्रति-अहंकार, प्रतिराग-द्वेष, प्रतिशोषण, प्रति-अत्याचार न लौटे। प्रतिक्रिया नहीं, प्रत्यायात नहीं, प्रेम लौटे, प्रभुता लौटे । प्रतिक्रिया नहीं, चैतन्य की शुद्ध और नव्य निचा प्रवाहित हो, जिसके आत्म तेजस्वी संघात से विरोधी जड़-शक्ति का सपूल विनाश हो जाय।
प्रस्तुत कहानियों की रचना में चही तत्त्व पौलिक रूप से अन्तर्निहित है। इनके पात्र प्रथमतः आत्मान्वेषी हैं, आत्मालोचक हैं, आत्मज्ञान के जिज्ञासु और खोजी हैं। उन्हें प्रथमतः अपनी स्वयं की, अपनी आत्मा की तलाश है। उनमें उत्कट पृच्छा है कि क्या उनके भीतर कोई ऐसी अखण्ड अस्मिता या इयत्ता हैं जो क्षण-क्षण परिवर्तनशील मानसिक अवस्थाओं से परे, कोई धुव, शाश्वत, समरस सत्ता रखती हो, जो तमाम बाहरी हालात,