Book Title: Dvadasharnaychakram Part 4 Author(s): Mallavadi Kshamashraman, Labdhisuri Publisher: Chandulal Jamnadas ShahPage 21
________________ १४ नन्दिनी रचना मल्लवादिसूरिथी पण घणी प्राचीन हशे तेम नयचक्रमां नन्दिने आपेल विशेषण ऊपरथी अनुमानीए छीए । 'भगवदर्हदाज्ञाऽपि तथोपश्रूयते ( नय० पृ. ७४९ ) अर्थात् नन्दिने भगवान अरिहंतनी आज्ञा कहे छे । आथी निर्युक्तिनी रचना घणी प्राचीन छे ए माटे हवे बहु विचारवानुं रहेतुं नथी अने ते अरसामा कोई पण भद्रबाहु थया नथी जे बीजा भद्रबाहुनी कल्पना करवामां आवे छे तेमने विक्रमनी छट्ठी सदीना कहेवामां आवे छे। एटले वी. सं. १७० मां थयेला भद्रबाहुस्वामीमहाराज नियुक्तिना कर्त्ता छे । जैन सिद्धान्तोनो मूल आधार बार अङ्ग छे । तेना रचयिता पांचमा गणधर सुधर्मास्वामी म० छे । ते अङ्गो उपर उपाङ्गनी रचना स्थविर भगवंतोए करी छे । ते बन्नेनो उपयोग मल्लवादिसूरि म० छूटथी कर्यो छे । तेमां आचाराङ्ग स्थानाङ्ग अने भगवतीजी आ त्रण अङ्गसूत्रो छे । जीवाभिगम पन्नत्रणा आदि उपाङ्गसूत्रो छे । ते उपरांत सूत्र तरीके प्रसिद्ध नन्दी अने अनुयोगद्वारनां पण ग्रन्थकारे प्रमाण आप्यां छे । आ बधा ग्रन्थो अने तेना ग्रन्थकारो अतिप्राचीन काळना छे । कात्यायन. नयचक्रकारे पाणिनिना सूत्रो, वार्त्तिक अने तेना उपरना पातञ्जलमहाभाष्यनो ठेर ठेर छूटथी उपयोगकर्यो । पणिनिना समय विषे विद्वानोमां मतमेद प्रवर्त्ते छे । महान् जर्मन पण्डित मेक्समूलर ई० पू० ३५० प्रो० वेबर ई० पू० ४०० गोल्स्टकर - डॉ. भण्डारकर अने बेलवलकर ई० पू० ७०० प्रि० राजवाडे ई० पू० ८०० भारताचार्य ई० पू० ९०० पण्डितसत्यव्रतसामश्रमी ई० पू० २४०० श्रीयुधिष्ठिरमीमांसक ई० पू० २८०० पहेलांना गणे छे । वासुदेव शरण अग्रलाल पाणिनिना ग्रन्थ अष्टाध्यायीमांथी पुरावाओ जूक पाणिनिने युधिष्ठिर अने परीक्षितना समकालीन कहे छे । युधिष्ठिर अने परीक्षितनो काळ पण निश्चित करेलो छे जे तेमनी गणत्री मुजब आजथी लगभग ४३६९ वर्ष पूर्व हतो । पाणिनिना व्याकरण ऊपर अनेकै वार्त्तिको बन्या छे । तेमां कात्यायनकृतवार्तिक ज प्रसिद्ध छे । व्या० महाभाष्यमां मुख्यपणे कात्यायनवार्तिकनुं ज व्याख्यान करवामां आव्युं छे। आ वार्त्तिककारना अनेक नामोमांथी 'वररुचि' नाम पण प्रसिद्ध छे । वैयाकरणोमां आ वार्त्तिककार प्रामाणिक ग्रन्थकार छे। पतञ्जलिए 'प्रोवाच भगवांस्तु कात्यः' एम कात्यायन माटे भगवान् शब्दनो प्रयोग कर्यो छे । पण शबरखामिए मीमांसादर्शन ( १० - ८ - ४ ) मां 'सद्वादित्वात् पाणिनेर्वचनं प्रमाणम्, असद्वादित्वान्न कात्यायनस्य' आ वाक्यद्वाराए कात्यायनना वचनने अप्रमाण ठराव्युं छे । अर्वाचीन सघळाय 1 ग्रन्थकारोए कात्यायनने प्रामाणिक मान्या छे । कात्यायन पतञ्जलिथी पूर्ववर्त्ति छे अने पाणिनिथी उत्तरवर्त्ती १ ई० स. १९५७ फेब्रुआरी विश्वविज्ञान । २. १ कात्यायन. २ भारद्वाज. ३ सुनाग, ४ क्रोष्टा ५ बाडव ६ व्याघ्रभूति, ७ वैयाघ्रपद्य ये भाष्यटीकाओमां वृत्तिकारो छे । ३. केटलाक ऐतिहासिको 'वही नरस्यैतद्वचनम्' आ वचन जोईने उदयनना पुत्र वहीनरथी आ वार्त्तिककार अर्वाचीन छे एम माने छे. ते अयुक्त छे वैहीनरिनो उल्लेख बोधायन श्रौतसूत्रमां प्रवराध्यायमां आवेछे, पतञ्जलिए पण वार्त्तिकनी व्याख्यामां लख्युं छे के 'कुरणवाडवस्त्वाह- नैष वहीनरः, कस्तर्हि, विहीनर एष विहीनो नरः कामभोगाभ्याम्, विहीनरस्यापत्यं वैहीनरिः' कुरणबाडवना समयमा 'वहीनर' पाठ हतो. तेने अशुद्ध मानीने विहीनर शब्द होवो जोइए एम कहे छे माटे उदयलपुत्र वहीनर श्री अर्वाचीन मानवुं अयुक्त छे । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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