Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji

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Page 460
________________ 440 गुण है ? या आकाश का गुण है ? क्योंकि दो द्रव्यों के मध्य एक गुण नहीं रह सकता है।1282 प्रत्येक गुण अपने-अपने द्रव्य के आश्रित ही रहता है। अतः संयोग गुण न होकर पर्याय है। इसी कारण से उत्तराध्ययनसूत्र में संयोग को एकत्व, पृथ्कत्व, संख्या, संस्थान, वियोग की तरह पर्याय के लक्षण के भेद के रूप में ही प्रतिपादित किया है।1283 द्रव्य का अन्य रूप में रूपान्तरण (द्रव्यान्यथात्व) होने पर ही उसे अशुद्ध पर्याय कहना चाहिए। परन्तु घट, पट, लोकाश आदि परद्रव्यों के संयोग से होनेवाली पर्यायों को अशुद्ध पर्याय कैसे कह सकते हैं ? उन्हें तो उपचरित पर्याय ही कहना चाहिए।1284 शरीरादि मूर्तद्रव्यों के संयोग से जीव का मूर्तरूप में परिणमित होना या विष के संयोग से दूध का विष रूप में परिणमित होना इत्यादि को तो अशुद्ध पर्याय कहा जा सकता है। परन्तु धर्मादि द्रव्यों का घट, पट आदि परपदार्थों से संयोग होने पर भी, वे धर्मादि द्रव्य अपरिणामी होने से अन्यथा रूप से परिणमित नहीं होते हैं। अतः घटपटादि परद्रव्य के संयोगजन्य घटधर्मास्तिकाय, पटधर्मास्तिकाय, घटाकाश, पटाकाश आदि वास्तविक नहीं होने से उन्हें उपचरित पर्याय ही कहना चाहिए। इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए यशोविजयजी कहते हैं -परद्रव्य के संयोगजन्य पर्याय को अशुद्ध पर्याय के रूप में नहीं मानने पर तो असद्भूत व्यवहारनय से ग्राह्य मनुष्य आदि जीव की पर्यायों को भी अशुद्ध पर्याय नहीं कहा जा सकता है।1285 क्योंकि मनुष्य आदि पर्यायें भी कर्म नामक परद्रव्य के संयोग से ही प्रकट होते हैं। अतः मनुष्य आदि को भी उपचरित पर्याय ही कहना चाहिए। यदि मनुष्य आदि पर्याय असद्भूत व्यवहारनय से ग्राह्य होने से अशुद्ध पर्याय हैं तो धर्मादि 1282 वही, पृ. 676 1283 एकत पृथ्कत तिमवली, संख्या संठाणि। वली संयोग विभाग ए, मनमां तुं आणि।। . द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/12 1284 "हवइ जो इम कहस्यो, जे" धर्मास्तिकायदिकनइं परद्रव्य संयोग छइं, ते उपचरित पर्याय कहिइ, पणि अशुद्धपर्याय न कहिइं, द्रव्यान्यथात्व हेतुनइं विषइं ज अशुद्धत्वव्यवहार छइं" ......................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/13 का टब्बा 1285 उपचारि न अशुद्ध ते, जो परसंयोग। असद्भूत मनुजादिका, तो न अशुद्ध जोग ।। ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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