Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji

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Page 534
________________ 514 की वही रहती है। उत्पादव्यात्मक होने से जो परिवर्तनशील है वह पर्यायरूप है तथा ध्रौव्यरूप होने से जो अपरिवर्तनशील है वह द्रव्यरूप है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक सत्ता द्रव्यरूप से नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है। यही जैनदर्शन का परिणामीनित्यवाद है। वेदान्त और जैनदर्शन - जैनदर्शन सम्मत द्रव्य एकान्त रूप से न तो नित्य है और न ही क्षणिक है, अपितु नित्यानित्य है। जैनदर्शन द्रव्य के नित्यपक्ष की अपेक्षा से वेदान्तदर्शन के निकट है। दोनों दर्शन सत् को नित्य मानने पर भी दोनों की नित्यता में अन्तर है। वेदान्तदर्शन सत् को कूटस्थनित्य, परमार्थिक दृष्टि से निर्विकार और अव्यय मानता है अर्थात् त्रिकाल में उसमें कोई परिवर्तन घटित नहीं हो सकता है। जबकि जैनदर्शन सत् को परिणामीनित्य मानता है अर्थात् द्रव्य के रूप में नित्य होते हुए भी पर्याय के रूप में परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तित होते हुए भी द्रव्य के रूप में नित्य रहता है। सत्ता अपने अनादि स्वभाव से न तो उत्पन्न होती है और नहीं व्यय होती है, किन्तु उसकी अवस्थाओं का उत्पाद–व्यय होता रहता है। जहाँ ब्रह्मवादी सत् के उत्पाद-व्यय पक्ष या पर्याय को अवास्तविक मानते हैं और ध्रौव्यपक्ष या द्रव्य को वास्तविक मानते है, वहाँ जैनदर्शन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों के सम्मिलित रूप को ही सत् के रूप में व्याख्यायित करता है। क्योंकि सर्वथानित्य या पर्याय निरपेक्ष द्रव्य में अर्थक्रिया संभव नहीं हो सकती है और जो अर्थक्रिया से रहित है उसकी सत्ता ही नहीं है। . एकान्त नित्य मानने पर वस्तु जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगी। उसमें कुछ भी परिवर्तन संभव नहीं होगा। मिट्टी सदा मिट्टी ही रहेगी। उससे कभी भी घट नहीं बन सकता है। बालक सदा बालक ही रहेगा, वह युवा न हो पायेगा। युवा युवा ही रहेगा, वह कभी वृद्ध नहीं हो पायेगा। वृद्ध सदा वृद्ध ही बना रहेगा, वह मर न पावेगा। जो जैसा है, वह वैसा ही रहेगा। ऐसी स्थिति में जगत को मिथ्या या असत् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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