Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji

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Page 535
________________ 515 ही मानना पड़ेगा। क्योंकि हमारे अनुभूति में आने वाला जगत तो परिवर्तनशील है। जगत की एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा परिवर्तन से रहित हो। इसी प्रकार सर्वथा नित्य आत्मा दान, पूजा, हिंसा आदि शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकती है। सर्वथा नित्य आत्मा तो वही हो सकती है जिसके स्वभाव में भी परिवर्तन नहीं होता है। पुनः आत्मा नित्य या अपरिवर्तनशील ही है तो वह सदा संसारी रूप में रहेगी या मोक्षावस्था में ही रहेगी। न उसका बंधन हो सकता है और नहीं मुक्ति हो सकती है। ऐसी स्थिति में बंधन और मुक्ति की व्याख्या, धर्मसाधना आदि सब कुछ अर्थहीन हो जायेंगे। बौद्धदर्शन और जैनदर्शन - जैनदर्शन वस्तु को परिवर्तनशील मानकर भी उसे सर्वथा क्षणिक नहीं मानता है, जैसा कि बौद्धदर्शन मानता है। बौद्धदर्शन के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है। सब कुछ क्षणिक है। कुछ भी स्थायी नहीं है। जैनदर्शन भी वस्तु को प्रतिक्षण परिवर्तनशील मानता है, किन्तु उसका सर्वथा नाश नहीं मानता है। पर्यायों के उत्पाद और व्ययरूप परिणमन के बावजूद भी द्रव्य का नाश नहीं होता है। उदाहरणार्थ मिट्टी में पिण्डाकार का नाश और घटाकार का उत्पाद रूप परिणमन होने पर भी मिट्टी का सर्वथा नाश नहीं होता है। मिट्टी के पिण्डाकार के नाश के साथ ही मिट्टी का सर्वथा नाश मानने पर तो घट की उत्पत्ति असत् से माननी पड़ेगी परन्तु यह सर्वमान्य नियम है कि सत् का नाश और असत् की उत्पत्ति कभी नहीं होती है। यदि व्यक्ति या वस्तु अपने पूर्व क्षण की अपेक्षा उत्तर क्षण में सर्वथा बदल जाते हैं तो कर्मफल और नैतिकता आदि की व्याख्या भी नहीं हो सकेगी। दान देने वाला या पाप करनेवाला नष्ट हो गया तो दान या पाप का फल किसे मिलेगा ? पापफल का भोग कौन करेगा ? इसी प्रकार जिसने कर्मबन्ध किया, वह सर्वथा नष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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