Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji

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Page 537
________________ 517 भी दूसरे समवाय सम्बन्ध को मानना पड़ेगा। इस तरह अनवस्था दोष आता है। यदि समवाय सम्बन्ध बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य और गुण में रहता है तो समवाय की तरह गुण भी बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य में रह सकते हैं। अतः जैनदर्शन के अभिमत में द्रव्य और गुण परस्पर भिन्नाभिन्न है। द्रव्य और गुण को एकान्त भिन्न मानने पर द्रव्य का अभाव और द्रव्य का अनंतता का दोष उत्पन्न होता है। गुण किसी न किसी द्रव्य के आश्रय से ही रहते हैं। यदि वह द्रव्य गुण से भिन्न है तो गुण दूसरे किसी द्रव्य के आश्रय से रहेंगे। इस प्रकार द्रव्य की अनन्तता का प्रसंग आता है। द्रव्य गुणों का समुदाय है। यदि गुण समुदाय (द्रव्य) से भिन्न है तो फिर समुदाय ही नहीं रहेगा। इस तरह गुणों को द्रव्य से सर्वथा भिन्न मानने पर तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इसलिए गुण-गुणी का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। जो गुण के प्रदेश हैं वही गुणी अर्थात् द्रव्य के प्रदेश हैं। गुण और द्रव्य में प्रदेश भेद नहीं होने पर संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा से भेद भी है। जैनदर्शन और सांख्य योगदर्शन जैनदर्शन भी सांख्यदर्शन की तरह जड़ और चेतन तत्त्व को माननेवाला द्वैतवादी दर्शन है, परन्तु वह सांख्यदर्शन की तरह पुरूष को नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य नहीं मानता है, अपितु वस्तुमात्र को परिणामीनित्य मानता है, फिर चाहे वह जड़ हो या चेतन तत्त्व। सांख्यदर्शन के अभिमत में प्रकृति परिणामीनित्य है और पुरूष कूटस्थनित्य है। जबकि जैनदर्शन में जड़ और चेतन दोनों ही परिणामीनित्य हैं। पुरूष को कूटस्थनित्य मानने पर उसके बन्धन एवं मुक्ति की अवधारणा नहीं बनेगी तथा जड़ प्रकृति का बंधन और मुक्ति मानना युक्तिसंगत नहीं होगा। जबकि Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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