Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji
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विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यगत सभी धर्मों को जैनशास्त्र में पर्याय कहा है और ये पर्यायें भी गुण शब्द की ही प्रतिपादक हैं। 360
इसप्रकार परमार्थ दृष्टि से गुण पर्याय से भिन्न तत्त्व नहीं है। परन्तु सहभावी और क्रमभावी लक्षण के आधार पर 'गुण और पर्याय' ऐसा औपचारिक भेद किया जाता है। गुण ही पर्यायरूप बनता है। अतः गुण में द्रव्य की तरह पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति नहीं है। ‘पर्यायान् प्राप्नोति इति द्रव्यम्' –यह व्याख्या द्रव्य में ही घटित होती है। गुण पर्यायों का आधाररूप स्वतंत्र पदार्थ नहीं है बल्कि गुण स्वयं ही पर्याय के रूप में बदलता है। इसलिए गुण पर्यायों को प्राप्त करनेवाला शक्तिरूप पदार्थ नहीं है।
पुनः तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है –'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं और स्वयं निर्गुण होते हैं। यदि गुण में पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति विद्यमान है तो गुण भी द्रव्य की तरह शक्तिरूप गुणवाला पदार्थ हो जायेगा तथा दोनों शक्तिरूप पदार्थ हैं तो द्रव्य का लक्षण ‘गुणपर्यायवत्' और गुण का लक्षण 'निर्गुण' घटित नहीं होगा।367
इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा है –गुण पर्यायों का दल अर्थात् पर्यायों को प्राप्त करने वाला तत्त्व हो तो द्रव्य क्या करेगा ? पर्यायों को प्राप्त करने का कार्य यदि गुण ही कर लेगा तो फिर द्रव्य निरर्थक सिद्ध हो जायेगा। इस प्रकार गुण और पर्याय ये दो तत्त्व ही सिद्ध होंगे और द्रव्य नामक तीसरे तत्त्व की सिद्धि ही नहीं होगी। इसलिए गुणों के परिणमन को गुणपर्याय कहना केवल काल्पनिक है, वास्तविक नहीं है। 1368
1366 सन्मतिप्रकारण का विवेचन -पं. सुखलालजी, पृ. 66 1367 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, -धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 91 1368 जो गुण, दल पर्यवर्नु होवइ, तो द्रव्यइ स्युं कीजइ रे।
गुण-परिणाम पटंतर केवल, गुण-पर्याय कही जइ रे ।। ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/13
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