Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji

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Page 510
________________ 490 है और स्वयं बिना किसी अन्य सम्बन्ध के गुण और गुणी में रहता है तो समवाय सम्बन्ध की तरह गुण स्वयं ही बिना किसी अन्य सम्बन्ध से द्रव्य में क्यों नहीं रह सकता है। अतः द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर सम्बन्ध कथंचित् अभेद या अभिन्नता का भी है।1426 3. अनुभवसिद्ध लोकव्यवहार नहीं घटेगा : द्रव्य–पर्याय और द्रव्य-गुण के मध्य अभेद सम्बन्ध नहीं स्वीकारने पर 'सुवर्ण कुंडलादि अलंकार रूप बना है' तथा 'घट रक्तरूप बना है ऐसा लोक व्यवहार घटित नहीं होगा।1427 सुवर्ण पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है और कुंडलादि उसके विभिन्न पर्याय हैं। सुवर्णद्रव्य और कुंडलादि का क्षेत्र अलग-अलग नहीं है। सुवर्ण द्रव्य ही कुंडलादिक के रूप में परिणमित होता है। सुवर्ण कहीं अन्यत्र है और कुंडलादि अन्यत्र हैं, ऐसा नहीं होता है। जहां सुवर्ण है वहाँ कुंडलादि हैं और जहाँ कुंडलादि हैं वहीं सुवर्ण है। इसलिए दोनों में कथंचित अभेदभाव है। इसी प्रकार जो घट पहले श्यामरूप था वही घट पकने के बाद रक्तरूप बनता है। घटद्रव्य और उसके रक्तता आदि गुण अलग-अलग उपलब्ध नहीं होते हैं। द्रव्य और गुण में कथंचित अभेद सम्बन्ध रहता है। इसीलिए सुवर्ण कुंडलादि रूप बना है, घट रक्तरूप बना है। ऐसा शिष्ट व्यवहार होता है। 4. द्विगुणित गुरूता का दोष : यदि द्रव्य से पर्याय एकान्त रूप से भिन्न है तो मिट्टी और घट तथा तन्तु और पट एकान्त भिन्न हो जायेगें। जैनदर्शन की भाषा में घट-पट आदि को स्कन्ध और 1426 ते माटिइं गुण-गणथी अलगो समवाय संबंध कहिइं तो ते पणि अनेरो संबन्ध जोइइ तेहनइ पण अनेरो, इम करतां किहाई ठइराव न थाई. ...................... वही, गा. 3/2 का टब्बा 1427 "स्वर्ण कुंडलादिक हुउं जी" "घट रक्तादिक भाव" ए व्यवहार न संभवइजी, जो न अभेदस्वभाव रे।। ............. -द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/3 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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