Book Title: Dravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Author(s): Priyasnehanjanashreeji
Publisher: Priyasnehanjanashreeji

View full book text
Previous | Next

Page 515
________________ 495 यहाँ ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार परस्पर विरोधी होने से एक साथ और एक ही स्थान पर नहीं होते हैं, उसी प्रकार भेद और अभेद परस्पर विरोधी होने से एकसाथ और एक स्थान पर कैसे पाये जा सकते हैं ?1441 सर्वप्रथम यहाँ प्रकाश और अंधकार का दृष्टान्त ही सटीक नहीं है। क्योंकि प्रकाश और अंधकार की तरतमता असंख्य प्रकार की होती है। जैसे मध्यान्ह के समय में घर में फैला हुआ प्रकाश बाहर के प्रकाश की अपेक्षा से अंधकार है और भीतर के कक्ष की अपेक्षा से प्रकाश है। भीतर के कक्ष में रहा हुआ प्रकाश भी बाहर के कक्ष की अपेक्षा से अंधकार है और उससे अधिक भीतरवाले कक्ष की अपेक्षा से प्रकाश है। जो प्रकाश है वह उससे अधिक प्रकाश की अपेक्षा से अंधकार है और जो अंधकार है वह उससे गाढ़ अंधकार की अपेक्षा से प्रकाश है। इस प्रकार स्याद्वाद की दृष्टि में कोई विरोध नहीं आता है। अपेक्षाभेद से प्रकाश और अंधकार भी एकसाथ और एक ही स्थान पर हो सकते हैं।1442 यशोविजयजी ने वस्तु के भेदाभेद स्वरूप को अनेक दृष्टान्त से सिद्ध करने के लिए प्रयत्न किया है। यद्यपि 'घट' एवं 'घटाभाव' में परमार्थ से कोई विरोध नहीं होने पर भी उपचार से उनमें विरोध परिलक्षित हो सकता है। परन्तु भेद और अभेद में तो किसी प्रकार का विरोध नहीं है।1443 क्योंकि भेद और अभेद ये दोनों धर्म सर्वत्र समान रूप से प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। जैसे रूप-रस-गंध-स्पर्श में इन्द्रियग्राह्यता की अपेक्षा से भेद है तथा गुण की अपेक्षा से अभेद है।1444 रूप-रस-गन्ध-स्पर्श क्रमशः चक्षु–रसना-घ्राण-स्पर्शन रूप एक-एक इन्द्रिय से ग्राह्य है। इस प्रकार रूपादि भिन्नेन्द्रिय ग्राह्य होने से परस्पर भिन्न-भिन्न है तथापि अपने आश्रयभूत स्कन्धों या परमाणुओं में एक साथ ही रहने से 'एकाश्रयवृत्तित्व' अनुभव के आधार पर परस्पर 1441 भेद अभेद उभय किम मानो, जिहां विरोध निरधारो। एक ठामि कहो किम करे रहवइ, आतपनइं अंधयारो।। ...- वही, गा. 4/1 1442 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, -धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 156 1443 जे घट-घटाभावनइं यद्यपि विरोध छइ, तो पणि भेदाभेदनई विरोध नथी - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/2 का टब्बा 1444 एक ठामि सवि जननी साखिं, प्रत्यक्षइं जे लहीइ रे। रूप रसादिकनो परि तेहनो, कहो विरोध किम कहिइ रे।। ............. - वही, गा. 4/3 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551