Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 16
________________ मनुष्य आज न तो अपनी मूल प्रवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाये रखने के लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका "पशुत्व" कुलाँचे भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को "सभ्य' दिखाना चाहता है । अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालाएँ और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित मूलप्रवृत्तियाँ और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्षों से गुजर रही है, एक आन्तरिक और दूसरे बाह्य । आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस तानव - युक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण समाज-जीवन अशान्त और अस्त-व्यस्त । आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक असन्तुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षा भाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके है और नये मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नये मूल्यों की प्रसव पीड़ा से गुजर रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है, उसके सामने दो ही विकल्प हैं या तो पुनः अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओर लौट जावे या फिर एक नये मानव का सृजन करें, किन्तु पहला विकल्प अब न तो संभव है, और न वरेण्य । अतः आज एक ही विकल्प शेष है - एक नये आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज हम उस कगार पर खड़े हैं, जहाँ मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। यहाँ जोश का यह कथन कितना मौजूँ है - सफाइयाँ हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे है मैले । अन्धेरा छा जायेगा जहां में, अगर यही रोशनी रहेगी । । इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे वर्तमान संकट से उबार सकता है ? जैनधर्म कहता है कि भौतिकवादी दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तदजनित स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, जो कि आज सम्पूर्ण मानव जाति की त्रासदी है। क्योंकि भौतिकवादी दृष्टि से मनुष्य मूलतः पशु ही है । वह मनुष्य को एक आध्यात्मिक सत्ता (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक पशु (Developed social animal) ही मानती है। जबकि जैनधर्म मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है । भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का निःश्रेयस् उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक माँगों की सन्तुष्टि में 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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