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मोह-ममता और राग-द्वेष रूपी आवरण से आत्मा का अनन्त स्वरूप तिरोहित हो जाता है और जीवन दुःख और पीड़ा से भर जाता है।
आत्मा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। धान और चावल एक ही है, अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण (छिलके) सहित है और दूसरा निरावरण (छिलके रहित)। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल कर्म रूप आवरण का है।
जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त हो सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जावे, उसी प्रकार अपने ही परमात्म स्वरूप की अनुभूति तभी सम्भव है जब हम अपनी चेतना से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार फेकें। छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में जकड़ी हुई चेतना आत्मा है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल के रूप में निरावरण शुद्ध चेतना परमात्मा है। कहा है -
सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोय सिद्ध होय।
कर्म मैल का आंतरा, बूझे बिरला कोय।। मोह-ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही परमात्मा स्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रयत्न परमात्मा को पाने का नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो उपस्थित है ही। हमारी गलती यही है कि हम परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना तो चाहते हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों की दिशा यदि सही हो तो अपने में ही निहित परमात्मा का दर्शन दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी ही दास बना हआ है। हमें अपनी हस्ती का अहसास ही नही है। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है -
इन्सा की बदबख्ती अंदाज से बाहर है। कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।।
धर्मसाधना का स्वरूप धर्म के स्वरूप की इस चर्चा के पश्चात् यह आवश्यक है कि हम इस प्रश्न पर भी विचार करें कि धर्म की साधना क्या हैं? धर्म को जीवन में किस प्रकार जीया जा सकता है? क्योंकि धर्म साधना का तात्पर्य धर्म को जीवन में जीना है। धर्म जीवन जीने की एक कला है और उससे अलग होकर उसका न तो कोई अर्थ है और न कोई मूल्य
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