Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 58
________________ ही नहीं रह सकती है। प्रकृति यदि अपने नियमों में आबद्ध नहीं रहे, वह मर्यादा भंग कर दे तो वर्तमान विश्व क्या अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है? प्रकृति का अस्तित्व स्वयं उसके नियमों पर है। डॉ. राधाकृष्णन् अपनी पुस्तक 'हिन्दूओं का जीवन दर्शन' में लिखते हैं कि “प्रकृति का मार्ग लोगों के मन में छाई भावना और संस्कार द्वारा नहीं वरन् शाश्वत नियमों द्वारा निर्धारित होता है....... विश्व पूर्ण रूप से नियमबद्ध है। पशु जगत् के अपने नियम और मर्यादाएं हैं जिनके आधार पर वे अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न करते हैं। उनके आहार-विहार सभी नियमबद्ध हैं, वे निश्चित समय पर भोजन की खोज में निकल जाते एवं वापस लौट आते हैं। उनके जीवन कार्यों में एक व्यवस्थितता होती है। उनका जीवन नियमबद्ध है। लेकिन उपर्युक्त सभी तथ्यों के प्रति आपति यह की जा सकती है कि ये सभी नियम स्वाभाविक या प्राकृतिक हैं, जबकि मानवीय नैतिक नियम कृत्रिम या निर्मित होते हैं अतएव उनकी महत्ता प्राकृतिक नियमों की महत्ता के आधार पर सिद्ध नहीं की जा सकती। अब हम यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि मनुष्य के लिए निर्मित नैतिक नियम क्यों आवश्यक हैं। इस हेतु हमें सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक होगा कि सामान्य प्राणीवर्ग और मनुष्य में क्या अन्तर है, जिसके आधार पर उसके नैतिक मर्यादाएं (निर्मित नियम) पालन करने को कहा जा सकता है? यह निर्विवाद सत्य है कि प्राणी वर्ग में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसमें सर्वाधिक चिन्तन की क्षमता है। उसका यह ज्ञान-गुण या विवेक क्षमता ही उसे पशुओं से पृथक कर उच्च स्थान प्रदान करती है। कहा भी है - ___ आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना: पशुभि समानाः।। उसे अपनी इस विवेकशक्ति के आधार पर ही इन तथ्यों पर विचार करना है कि मनुष्य के लिए शुभ क्या है, अशुभ क्या है? अथवा उसके लिये ज्ञेय, हेय और उपादेय तत्त्व क्या हैं? मनुष्य का कार्य यही है कि वह अपने हिताहित का विचार करे। स्मृतिकार मनु भी यही कहते हैं - मननात् मनुष्यः। जिसमें मनन करने की सामर्थ्य है वही मनुष्य है। जिस मनुष्य में अपने कर्तव्यों का ज्ञान नहीं, जो सर्व कर्मों के प्रति अनजान है अर्थात् जो शुभ और अशुभ कर्मों के विभेद को नहीं जानता और समयोचित आचरण नहीं करता, वह मनुष्य पशु ही है - १. राधाकृष्णन्, हिन्दुओं का जीवन दर्शन, पृ. ६८॥ 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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