Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 56
________________ निन्दा ये सब सांसारिक जीवन के अनिवार्य तत्त्व हैं। कोई भी इनसे बच नहीं पाता ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के ही जीवन में सब तरह की परिस्थितियाँ आती है अन्तर यही है कि ज्ञानी उन्हें जीवन की यथार्थता मानकर समभाव से अर्थात अपने चित्त की समता को नहीं खोते हए उनका वेदन करता है जबकि अज्ञानी उनमें विचलित हो जाता है उनके कारण दु:खी होता है। वस्तुत: सम्यग्ज्ञान का अर्थ है जीवन की अनुकूल एवं प्रतिकूल स्थितियों में अविचलित भाव से या समभाव से जीना। जब ज्ञान के द्वारा जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है, तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मन का समभाव सधता है। मन में निराकुलता जगे मन तनावों से मुक्त हो यही साधना के क्षेत्र में ज्ञान की उपयोगिता है। सम्यक चारित्र का स्वरूप निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है। मानसिक या चैत्तसिक जीवन में, समत्व की उपलब्धि चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुत: चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना को अवस्था में होने वाले सभी कार्य शद्ध ही माने गये हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त ही जाती है तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत चेतना जो कि नैश्चयिक चारित्र का आधार है, राग, द्वेष, कषाय विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्मजाग्रत होता है तब उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता और तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। वस्तुतः जो ज्ञाता-द्रष्टा बनकर जीवन में जीना ही सम्यक् चरित्र है। यद्यपि व्यावहारिक से सम्यक चरित्र का अर्थ आत्मनियंत्रण या संयम है। पूर्व में मानव प्रकृति की चर्चा करते हए हमने इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था कि मनुष्य और पशु में यदि कोई अन्तर है तो वह यह कि मनुष्य में आत्मनियंत्रण या संयम की सामर्थ्य होती है जब कि पशु में उस सामर्थ्य का अभाव होता है। पशु एक विशुद्ध रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता है उसका समस्त व्यवहार प्रकृति के नियमों के अनुसार संचालित होता है। भूखा होने पर वह खाद्य सामग्री को प्राप्त करता है और वह उसका उपभोग करता है किन्तु भूख के अभाव में वह उपलब्ध खाद्य सामग्री को छूता तक नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य ने प्रकृति से विमुख होकर जीवन जीने की एक शैली विकसित कर ली है। वह भूख 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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