Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 55
________________ एगो मे ससदो अप्पा णाणसण संजुओ। सेसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।। अर्थात् मैं ज्ञाताद्रष्टारूप अकेला आत्मा हूँ। शेष सभी मुझसे भिन्न हैं और सांयोगिक हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारी जो भी सांसारिक उपलब्धियाँ है चाहे वह धन-सम्पदा के रूप में हो या पत्नी-पुत्र-पुत्री आदि परिवार के रूप में हो वह सभी केवल संयोगजन्य उपलब्धि है। व्यक्ति के लिए पत्नी सबसे निकट होती है, अन्यतमा होती है किन्तु हम जानते हैं कि वह केवल एक संयोगिक उपलब्धि है, दो प्राणी कहीं किसी परिस्थिति के कारण या संयोग के वश एक दूसरे के निकट जा जाते हैं और एक दूसरे को अपना मान लेते हैं, यही अपनापन या ममता ही संसार है जो उसे बन्धन, दुःख तथा दुश्चिन्ताओं से जकड लेता है, वह उसके लिए अच्छा बुरा क्या-क्या नहीं करता। वस्तुत: सम्यग्ज्ञान का अर्थ है जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप को पहचानना। वस्तुतः हम सम्यग्ज्ञान के अभाव में अनित्य को नित्य मान बैठते हैं, पराये को अपना मान बैठते हैं और इसी कारण फिर दुःखी होते हैं। हमारे यहाँ सम्यग्दृष्टि या ज्ञानी की एक स्पष्ट पहचान बतायी गयी है, कहा गया है कि - सम्यकदृष्टि जीवडा करे कदम्ब प्रतिपाल। अन्तरा न्यारा रहे ज्यों धाय खिलावे बाल।। - हम सब यह अच्छी तरह जानते है कि एक कर्तव्यनिष्ठ नर्स किसी बच्चे का लालन-पालन उसकी माँ की अपेक्षा ही बहुत अच्छी प्रकार से करती है, एक कर्तव्यनिष्ठ डाक्टर किसी व्यक्ति के जीवन को बचाने के लिए उसके पारिवारिकजनों की अपेक्षा अच्छी प्रकार से उस रोगी की परिचर्या करता है किन्तु नर्स और डॉक्टर दोनों ही क्रमश: बालक और रोगी की पीड़ा और मृत्यु से उतने विचलित नहीं होते जितने कि उनके पारिवारिकजन होते हैं। ऐसा क्यों होता है। इसका कारण स्पष्ट है कि पारिवारकिजनों से हमारे मन में एक ममत्वभाव होता है, एक अपनापन होता है, रागात्मकता होती है जबकि नर्स और डॉक्टर में निरपेक्षता का भाव होता है। वे जो कुछ भी करते हैं कर्तव्य बुद्धि से करते हैं। एक ही काम एक व्यक्ति कर्तव्यबुद्धि से करता है, एक ममत्व बुद्धि से, जो ममत्वबुद्धि से करता है वह विचलित होता है, दुःखी होता है किन्तु जो कर्तव्य बुद्धि से करता है वह निरपेक्ष बना रहता है, तटस्थ बना रहता हैं वस्तुत: सम्यग्ज्ञान का मतलब है कि हम संसार में जो कुछ भी करें, जैसा भी जीयें वह सब कर्तव्यबुद्धि से करें और जीयें ममत्वबुद्धि ने नहीं जो सांसारिक उपलब्धियाँ हैं और जो सांसारिक पीड़ायें और दुःख हैं उनके प्रति हमारा निरपेक्षभाव रहे, हम उन्हें मात्र परिस्थितिजन्य समझें। सुख-दुःख, संयोग-वियोग, मान-अपमान, प्रशंसा और 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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