Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 54
________________ भिन्नता का बोध करता है। चाहे अनुभूति के स्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो किन्तु ज्ञान के स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है। क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है अतः पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद, क्रमश: उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादिक भावों से अपनी भिन्नता का बोध करना होता है, जो अपेक्षाकृत रूप से कठिन और कठिनतर हैं क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना रहता है फिर भी हमे यह जान लेना होगा कि जो कछ पर के निमित्त से है वे हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव भी पर के निमित्त से ही है अत: वे हममें होते हुए भी हमारा निजस्वरूप नहीं हो सकते हैं। यद्यपि वे आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उसका निजरूप नहीं है। जैसे उष्ण पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते हुए भी उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण है वैसे ही रागादि भाव आत्मा में होते हुए भी उसका अपना स्वरूप नहीं है। यह स्व स्वरूप का बोध ही जैन साधना का सार है जिसकी विधि है भेदविज्ञान अर्थात् जो स्व से भिन्न है उसे 'पर' के रूप में जानकर उसमें रही हई तादात्म्यता के बोध को तोड़ देना। ममता का बन्धन शिथिल हो जाता है। वस्तुत: जब साधक इस भेदविज्ञान के द्वारा यह जान लेता है कि पर क्या है तो उस पर के प्रति उसका अपनेपन का भाव भी समाप्त हो जाता है। वस्तुत: जो कुछ भी पर है अपने से भिन्न है वह सब सांयोगिक है अर्थात् संयोगवश ही हमें मिला है जो संयोगवश मिला है उसका वियोग भी अनिवार्य है, जिसका वियोग होना है वह हमारे लिए दुःख का कारण ही है, इसीलिए बौद्ध परम्परा में भी कहा गया है जो अनात्म है अर्थात् पराया है वह अनित्य है, अर्थात् उसका वियोग या नाश अपरिहार्य है और जिसका वियोग या नाश अपरिहार्य है वह दुःख रूप ही है। वस्तुतः हमारा बन्धन और दुःख इसीलिए है कि हम पहले अनात्म में आत्मबुद्धि स्थापित करते हैं फिर उसके वियोग या नाश से अथवा नाश की सम्भावना से दुःखी होते हैं। जैसा कि हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं दुःख या पीड़ा वहीं तक है जहाँ तक पर में आत्मभाव है। हमारे जीवन का एक सामान्य अनुभव है कि हम प्रतिदिन अनेकों को मरता हुआ देखते हैं या सुनते हैं,किन्तु उनकी मृत्यु हमारे हृदय को विचलित नहीं करती, हम सामान्यतया दुःखी नहीं होते क्योकि उन पर हमारा कोई राग-भाव या ममत्व बुद्धि नहीं है, किन्तु जहाँ भी राग-भाव जुड़ जाता है, ममत्वबुद्धि स्थापित हो जाती है, हम किसी को अपना मानने लगते है, वहीं पर उसकी मृत्यु या वियोग हमें सताता है। अतः दुःख की निवृत्ति का कोई उपाय हो सकता है तो वह यही कि संसार की वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति हमारा राग-भाव समाप्त हो और यह राग-भाव समाप्त हो सकता है जबकि हम सम्यग् ज्ञान के द्वारा आत्म-अनात्म के विवेक को प्राप्त कर सकते हैं। सम्यग् ज्ञान क्या हैं इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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