Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 71
________________ वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। जिस प्रकार परिवार या जाति का ममत्व हमारी राष्ट्रीय एकता में बाधक है । उसी प्रकार राष्ट्रीयता का ममत्व हमारी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की अवधारणा में बाधक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति जब तक राग या आसक्ति से ऊपर नहीं उठता तब तक सामाजिकता का सदभाव सम्भव नहीं हो सकता, समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है अतः वीतराग या अनासक्ति दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव जाति में सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है। जैन दर्शन में राग के साथ-साथ मान (अहंकार) के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिय गया है। अहंकार भाव भी हमारे सामाजिक सम्बन्धों में बाधा ही उत्पन्न करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं और इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती है यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें, तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख है। आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्व विकसित होते हैं। इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, युद्ध एवं हत्याएँ होती है और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार जन्म देती हैं। अतः यह कहना उचित ही होगा कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक विषमताओं को समाप्त करनें एवं सामाजिक समत्व की स्थापना में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है, और विकसित होता है, यह भारतीय चिन्तन का महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष है । वस्तुतः आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा लोकहित भी फलित नहीं होता है। आसक्ति या कर्म-फल की अपेक्षा के साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य नहीं होता है। जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज - कल्याण अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ करता है वह केवल अपने वेतन के लिए करता है। इस प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त व्यक्ति चाहे बाहर से लोकहित Jain Education International 65 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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