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से पीड़ित होकर एवं खाद्य सामग्री के उपलब्ध होने पर भी वह खाने से इन्कार कर सकता है और दूसरी ओर वह पेट भरा होने पर भी अपनी प्रिय खाद्य सामग्री के लिए व्याकुल हो सकता है वह उसका उपभोग कर सकता है। मनुष्य में एक ओर वासना की तीव्रता है तो दूसरी ओर संयम की क्षमता भी है। वस्तुत: यह संयम उसकी साधना का मूल तत्त्व है। यह संयम ही उसे पशुत्व से ऊपर उठाकर देवत्व तक पहुँचाता है जबकि संयम के अभाव में पशु से भी नीचे उतर जाता है एक दरिंदा या राक्षस बन जाता है।
संयम : जीवन का सम्यक् दृष्टिकोण
संभवत: किन्हीं विचारकों की यह मान्यता हो सकती है कि व्यक्ति अपनी जीवनयात्रा के संचालन में किन्हीं मर्यादाओं एवं आचार के नियमों से नहीं बाँधना चाहिये। लेकिन यदि हम विचारपूर्वक देखें तो यह तर्क युक्तिसंगत नहीं। इस तथ्य के समर्थन में प्रबलतम तर्क यह दिया जा सकता है कि 'मर्यादाओं के द्वारा हम व्यक्ति के जीवन को स्वाभाविकता नष्ट कर देते हैं और मर्यादाएँ या नियम कृत्रिम एवं आरोपित होते हैं। वे तो स्वयं एक प्रकार के बंधन हैं। इस प्रकार मनुष्य के लिए मर्यादाएँ (सीमा रेखायें) व्यर्थ हैं।'
लेकिन यह मान्यता यथार्थ नहीं। यदि हम प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करें तो हमें स्वयं ज्ञात होगा कि प्रकृति स्वयं नियमों से आबद्ध है। एक पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा का कथन है कि संसार में जो कुछ हो रहा है, नियमबद्ध हो रहा है। इससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता जो कुछ होता है प्राकृतिक नियम के अधीन होता है । "
प्रकृति स्वयं उन तथ्यों को व्यक्त कर रही है जो इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि विकारमुक्त स्वभावदशा की प्राप्ति एवं आत्मविकास के लिए मर्यादाएं आवश्यक हैं। चेतन और अचेतन दोनों प्रकार से सृष्टियों की अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। सम्पूर्ण जगत् नियमों से शासित है। जिस समय जगत् में नियमों का अस्तित्व समाप्त होगा उसी समय जगत् का अस्तिव भी समाप्त हो जाएगा। अतः नियम या मर्यादाएं कृत्रिम या अस्वाभाविक नहीं, स्वाभाविक हैं।
नदी का अस्तित्व इसी में है कि वह अपने तटों की मर्यादा स्वीकार करें। यदि वह अपनी सीमा रेखा (तट) को स्वीकार नहीं करती है तो क्या वह अस्तित्व बनाये रख सकती है? क्या अपने लक्ष्य जलनिधि (समुद्र) को प्राप्त कर सकती है? किंवा जन-कल्याण में उपयोगी हो सकती है ? वास्तव में तटों की मर्यादा के बिना नदी, नदी
१. पश्चिमी दर्शन, पृ. १२१ ।
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