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मनुय के लिए अमर्यादित जीवनव्यवस्था संभव नहीं है। हम सभी ओर से मर्यादाओं से आबद्ध है, प्राकृतिक मर्यादाएँ, व्यक्तिगत मर्यादाएँ, पारिवारिक मर्यादाएँ, सामाजिक मर्यादाएँ, राष्ट्रीय मर्यादाएँ और अंतर्राष्ट्रीय मर्यादाएँ इन सभी से मनुष्य बंध हुआ है और यदि वह इन सबको स्वीकार न करें तो वह उस दशा में पशु से भी हीन होगा। महान राजनैतिक विचारक रूसो ने ठीक ही कहा है
"Man was born free and every where he is in chains" ' 'मनुष्य का जन्म स्वतंत्र रूप में हुआ था लेकिन वह अपने को श्रद्धाओं में जकड़ा हुआ पाता है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मर्यादाओं का पालन आवश्यक और अनिवार्य है। सभी मर्यादाओं का पालन संयम नहीं कहला सकता। लेकिन यदि सभी मर्यादाएँ स्वेच्छा से स्वीकार कर ली जाती हैं तो उनके पीछे अव्यक्त रूप में संयम का भाव छिपा रहता है। वे ही मर्यादाएँ संयम कहलाने की अधिकारी है जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मविकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है ।
ऊपर हमने संयम की सामान्य आवश्यकता के सम्बन्ध में विचार किया। अब हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि वर्तमान परिस्थितियों में संयम का स्थान क्या है ?
वर्तमान युग भौतिकवाद का युग है। आज के युग में संयम का स्थान नगण्य सा होता जा रहा है। हम मानवजाति के विकास हेतु जिन साधनों का प्रयोग कर रहे हैं उनका एक मात्र लक्ष्य है ‘आवश्यकताओं की असीमित वृद्धि और उनकी पूर्ति का निरन्तर प्रयास'। इस प्रकार वर्तमान युग में आवश्यकताओं की वृद्धि के मार्ग पर मानव अबाध गति से बढ़ रहा है और अर्थशास्त्री तथा वैज्ञानिक इसे प्रगति का पूर्ण अंग मानकर इस कार्य को गति प्रदान कर रहे हैं।
भौतिक आवश्यकताओं का जीवन में स्थान है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। हमारे यहाँ कहा गया है, 'भूखे भजन न होइ गोपाला' । भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य हैं, किन्तु उसकी भी एक सीमा है। कबीरदास ने इस तथ्य को अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है
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कबीरा सरीर सराय है, भाडा देके बस ।
जब भठियारी खुश रहे, तब जीवन का रस ।।
इसमें कबीर के शब्दों की अभिव्यंजना को देखिये । सम्पूर्ण दोहें में भौतिक आवश्यकता को शरीर के लिए आवश्यक मानते हुये भी उन्होंने शरीर को सराय
१. Social Chapter 1.
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