Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 48
________________ धार्मिक साधना के क्षेत्र में आस्था के अनेक रूप दृष्टिगत होते हैं। मुख्यतया हम तीन प्रकार की आस्थाओं की चर्चा करना चाहेंगे। एक आस्था अपने आप के प्रति होती है। दूसरी आस्था अपने सहयोगियों एवं संघ के सदस्यों के प्रति होती है। तीसरी आस्था परमसत्ता या परमात्मा के प्रति। पहली आस्था जो आवश्यक है वह अपने प्रति होनी चाहिए। यदि हम अपने प्रति और अपनी क्षमताओं के प्रति आस्थावान् नहीं हैं तो सम्भवतः हम जीवन में कुछ भी नहीं कर पायेंगे। आत्मविश्वास ही एक ऐसा सम्बल है, जो मनुष्य को कठिनाइयों में साहस देता है और उसे सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ाता है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास नहीं होगा वह पग-पग पर खिन्न होगा. निराश होगा और इस प्रकार न केवल अपनी प्रगति से वंचित रहेगा अपित् निराश और अविश्वास के कारण उसका स्वयं का जीवन भी अशान्त और विषादपूर्ण बन जाएगा। मन की क्षमता और शान्ति के लिए अपने आप के प्रति आस्था व विश्वास का होना आवश्यक है। निराशा से मुक्ति के लिए आस्था आवश्यक है क्योंकि आस्था से आत्मशक्ति का प्रकटन होता है। आस्था के कारण ही आत्मा की अनन्त-शक्ति का अहसास होता है। जहाँ तक हमारे सामाजिक शान्ति और सद्भाव का प्रश्न है, वहाँ समाज में पारस्परिक विश्वास व सद्भाव का होना आवश्यक है। यदि समाज के सदस्यों में या इससे आगे बढ़कर कहें कि मानव समाज में परस्पर सद्भाव व आस्था नहीं होगी, यदि प्रत्येक मनुष्य में निहित मानवीय गुणों के प्रति हमारा विश्वास नहीं जायेगा तो निश्चित ही अनावश्यक भय तथा आतंक से ग्रस्त होंगे। जैन चिन्तकों के अनुसार व्यक्ति में अपने आपके प्रति आस्था और समाज के प्रति वात्सल्य-भाव का होना आवश्यक है। ये दोनों सम्यक् दर्शन के अंग माने गये हैं। जहाँ तक परमात्मा के प्रति श्रद्धा या आस्था का प्रश्न है। जैन धर्म में इसे वीतराग देव के प्रति श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। यद्यपि जैनधर्म को अनीश्वरवादी कहा जाता है और इसी आधार पर कभी-कभी यह भी मान लिया जाता है कि उसमें श्रद्धा या भक्ति का कोई स्थान नहीं है। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। चाहे जैन विचारक संसार के स्रष्टा और नियामक के रूप में किसी ईश्वर को न मानते हो किन्तु आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में परमात्म स्वरूप मानकर वे उसके प्रति आस्था एवं श्रद्धा को अवश्य मानते हैं। पुनः किसी पराशक्ति या परानियम के प्रति आस्था को भी उन्होंने जीवन में आवश्यक माना है। इसे वे कर्म का नियम कहते हैं। उनके अनुसार यही एक ऐसा नियम है जो मनुष्य को दुःख और निराशा के क्षणों में शान्ति प्रदान कर सकता है और व्यक्ति में आशा की एक किरण प्रदान कर सकता है। क्योंकि इसमें होनहार के साथ पुरुषार्थ 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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